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मानसरोवर


तुम्हें क्यों सताऊँ ? किसी-न-किसी तरह दिन कट हो गये। घर में और कुछ न था, तो थोड़े-से गहने तो थे हो। अब सुनीता के विवाह को चिंता है। पहले मैंने सोचा था। इस मकान को निकाल दूंगी, बीस बाईस हजार मिल जायेंगे। विवाह भी हो जायगा और कुछ मेरे लिए बच भी रहेगा। लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान 'पहले ही रेहन हो चुका है और सूद मिलाकर उस पर बीस हज़ार हो गये हैं। महा- जन ने इतनी हो दया क्या कम की कि मुझे घर से निकाल दिया। इधर से तो "अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ-पाँव जोड़ने पर, संभव है, महाजन से दो-ढाई हज़ार और मिल जाय। इतने में क्या होगा ? इसी फ़िक्र में घुली जा रही हूँ। लेकिन, मैं भी कितनी मतलबी हूँ, न तुम्हें हाथ-मुँह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लाई और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपड़े उतारिए और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बाते हो। घर पर तो सब कुशल है।

मैंने कहा --- मैं तो सीधा बम्बई से यहाँ भा रहा हूँ। घर कहाँ गया।

गोपा ने मुझे तिरस्कार-भरी आँखों से देखा ; पर उस तिरस्कार की आड़ में घनिष्ठ आत्मीयता बैठी झांक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा, उसके मुख को झुर्रियाँ मिट गई हैं। पीछे मुख पर हलको-सौ लाली दौड़ गई। उसने कहा-इसका फल यह होगा कि तुम्हारी देवोजी तुम्हें कभी यहाँ न आने देगी।

मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ।'

'किसी को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पड़ता है।'

शीतकाल की संध्या देखते-ही-देखते दीपक जलाने लगी। सुन्नी लालटेन लेकर कमरे में आई। दो साल पहले की अबोध और कृशतनु वालिका रूपवती युवती हो गई थी, जिसकी हर एक चितवन, हर एक बात, उसकी गौरवशील प्रकृति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरफ आज आखें न उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपटकर प्रपन्न होती थी, आज मेरे सामने खड़ी भी न रह सकी। जैसे मुझसे कोई वस्तु छिपाना चाहती है। और जैसे मैं उसे उस वस्त को छिपाने का अवसर दे रहा हूँ।

मैंने पूछा --- अब तुम किस दरजे में पहुँचौं सुन्नी ?

उसने सिर झुकाये हुए जवाब दिया-दसवें में हूँ।