पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

९९
शांति

'घर का भी कुछ काम-काज करती हो ?'

'अम्मा जब करने भी दें।'

गोपा बोली --- मैं नहीं करने देती या तू खुद किसी काम के नगीच नहीं जाती ?

सुन्नी मुंह फेरकर हँसती हुई चली गई। मां की दुलारी लड़की थी। जिस दिन वह गृहस्थी का काम करती, उस दिन शायद गोपा रो-रोकर आंखें फोड़ लेती। वह खुद लकी को कोई काम न करने देती थी। मगर सबसे शिकायत करती यो कि वह कोई काम नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्यार का ही एक करिश्मा था। हमारी 'मर्याद' हमारे बाद भी घोषित रहती है। मैं भोजन करके लेटा, तो गोपा ने फिर सुन्नी के विवाह की तैयारियों को चर्चा छेड़ दी। इसके सिवा उसके पास और बात ही क्या थी। लड़के तो बहुत मिलते हैं। लेकिन कुछ हैसियत भी तो हो। लड़को को यह सोचने का अवसर क्यों मिले कि दादा होते, तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर-वर ढूँढते। फिर गोपा ने डरते-हरते लाला मदारीलाल के लड़के का ज़िक्र किया।

मैंने चकित होकर उसकी ओर देखा। लाला मदारोलाल पहले इंजीनियर थे। भव पेंशन पाते थे, लाखों रुपया जमा कर लिये थे, पर अब तक उनके लोभ को प्यास न बुझी थी। गोपा ने घर भो वह छोटा, जहां उसको रसाई कठिन थी।

मैंने आपत्ति को मदारीलाल तो बड़ा हो दुर्जन मनुष्य है।

गोपा ने दांतों तले जोम दवाकर कहा --- अरे नहीं भैया, तुमने उन्हें पहचाना न होगा। मेरे ऊपर बड़े दयालु हैं। कभी-कभी आकर कुशल-समाचार पूछ बाते हैं। लहका ऐसा होनहार है कि मैं तुमसे क्या कहूँ। फिर उनके यहाँ कमी किस बात की है ? यह ठीक है कि पहले वह खूप रिश्वत लेते थे, लेकिन यहाँ धर्मात्मा कौन है ? कौन अवसर पाकर छोड़ देता है ? मदारीलाल ने तो यहां तक कह दिया है कि वह मुमसे दहेज नहीं चाहते, केवल कन्या चाहते हैं। सुन्नी उनके मन में बैठ गई है।

मुझे गोपा की सरलता पर दया आई। लेकिन मैंने सोचा, क्यों इसके मन में किसी के प्रति अविश्वास उत्पल कह। संभव है, मदारीलाल वह न रहे हों। चित्त को भावनाएं बदलती भी रहती हैं।

मैंने अर्ध-सहमत होकर कहा --- मगर यह तो सोचो, उनमें और तुममें कितना सन्तर है। तुम शायद अपना सर्वस्व अर्पण करके भी उनका मुंह सीधा न कर सकी।