पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१०१
शांति


थी। गोपा को इज्जत सबकी इज्जत है और गोपा के लिए तो नींद और आराम हराम था। दर्द से सिर फटा जा रहा है, आधी रात हो गई। मगर वह बैठो कुछ-न- कुछ सो रही है, या 'इस कोठी का धान उस कोठी' कर रही है। कितनी वात्सल्य से भरो भाकाक्षा थो कि जो देखनेवालों में श्रद्धा उत्पन्न कर देती थी।

अकेली औरत और वह भी आधी जान की। क्या क्या करे। जो काम दूसरों पर छोड़ देती है, उसी में कुछ न कुछ कसर रह जाती है। पर उसको हिम्मत है कि किसी तरह हार नहीं मानती।

पिछली बार उसको दशा देखकर मुझसे न रहा गया। बोला ---गोपा देवी, अगर मरना ही चाहती हो, तो विवाह हो जाने के बाद मरो। मुझे भय है कि तुम उसके पहले ही न चल दो।

गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली-इसको चिन्ता न करो भैया, विधवा को आयु बहुत लम्बी होती है। तुमने सुना नहीं, राड मरे न खंडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यही है कि सुन्नी का ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूँ। अब और जीकर क्या करूँगी, सोचो। क्या कल, अगर किसी तरह का विघ्न पड़ गया, तो किसकी बदनामी होगी ? इन चार महीनों में मुश्किल से घण्टा-भर सोती हूँगो। नींद ही नहीं आती, पर मेरा चित्त प्रसन्न है। मैं मरूँ या जीऊँ, मुझे यह सन्तोष तो होगा कि सुन्नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैने कर दिया। मदारीलाल ने अपनी सज्जनता दिखाई, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखती है।

एक देवी ने आकर कहा --- बहन, जरा चार देख लो, चाशनी ठीक हो गई है या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी को परीक्षा करने गई और एक क्षण के बाद भाकर बोलो --- जी चाहता है, सिर पीट लू। तुम जरा बात करने लगी, उधर चारानी इतनी कड़ी हो गई कि लट दातों से लड़ेगे। किससे क्या कहूँ !

मैंने चिढ़ार कहा --- तुम व्यर्थ का मट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई‌। को घुलाकर मिठाइयों का ठीका दे देती ? फिर तुम्हारे यहाँ मेहमान हो कितने भायेंगे, जिनके लिए यह तमार बांध रहो हो। दस-पाच को मिठाई उनके लिए बहुत होगी।

गोपा ने व्यथित नेत्रों से मेरो और देखा। मेरी यह आलोचना उसे दुरो लो। इन दिनों से मात बात पर मोच आ आता था। बोलो --- भैया, तुम यह बातें न सम- झोगे। तुम्हें न मां बनने का अवसर मिला, न पत्नी बनने का! सुन्नी के पिता का