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मानसरोवर


कितना नाम था, कितने आदमी उनके दम से बोते थे, क्या यह तुम नहीं जानते ! वह पगढी मेरे ही सिर तो बंधी है। तुम्हे विश्वास न आयेगा, नास्तिक जो ठहरे पर मैं तो उन्हें सदेव अपने अन्दर बैठा हुआ पाती हू, जो कुछ कर रहे हैं, वह कर रहे है, मैं मन्दबुद्धि स्त्री भला अकेली क्या कर देती ? वही मेरे सहायक हैं, वही मेरे प्रकार हैं। यह समझ लो कि यह देह मेरी है ; पर इसके अन्दर जो आत्मा है, वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है, उनके पुण्य-आदेश से हो रहा है। तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सकड़ों रुपये खर्च किये और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहामिनी हूँ, लोक में भी, परलोक में भी।

मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया।

( ४ )

जून में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा दिया लेकिन फिर भी, उसे संतोष न था। आज सुन्नी के पिता होते, तो न जाने क्या करते ! बराबर रोती रही।

जाड़ों में में फिर दिल्ली गया। मैंने समझा था, अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर दोनो आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्या चाहिए। लेकिन सुख उसके भाग्य में ही न था।

मैं अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखड़ा शुरू कर दिया - भैया, पर-द्वार सम अच्छा है, सास-ससुर भी अच्छे हैं। लेकिन जमाई निकम्मा निकला। सुन्नी बेचारी रो-रकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गई है। अभी कई दिन हुए, आई हुई थी, उसकी दशा देख. कर छाती फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन-बदन की सुध है, न कपड़े-लत्ते को। मेरी सुन्नी की यह दुर्गति होगी, यह तो स्वप्न में भी न सोचा था। बिलकुल गुम-सुम हो गई है। कितना पूछा --- बेटी, तुझसे वह क्यों नहीं बोलता, किस बात पर नाराज़ है। लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देतो। बस, आँखों से भास बहते रहते हैं। मेरो मुन्नी कुएँ में गिर गई।

मैंने कहा --- तुमने उसके घरवालों से पता नहीं लगाया ?

'लगाया क्यों नहीं भैया, सम हाल मालुम हो गया। लौंडा चाहता है, मैं चाहे