थी। पढ़ना-लिखना तो दूर रहा, विलास को इच्छा बढ़ती गई। रग और गहरा हुमा,
अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने यह रंग देखा तो मुझे चिंता हुई। सोचा,
च्याह कर दूं, ठीक हो जायगा। गोपा देवी का पैगाम आया, तो मैंने तुरन्त स्वीकार
कर लिया। मैं सुन्नी को देख चुका था। सोचा, ऐसौ रूपवती पत्नो पाकर इसका मन
स्थिर हो जायगा, पर वह भी लाडली लडको धी-हठीलो, अबोध, भादर्शवादिनी।
सहिष्णुता तो उसने सीखी ही न थी। समझौते का जीवन में क्या मूल्य है, इसकी उसे
खर ही नहीं। लोहा लोहे से लड़ गया। वह अभिमान से इसे पराजित करना चाहती
है, यह उपेक्षा से। यही रहस्य है। और साहब, मैं तो बह को ही अधिक दोषों सम-
झता हूँ। लड़के तो प्रायः मनचले होते ही हैं। लड़किया स्वभाव से ही सुशीला होती
हैं और अपनी जिम्मेदारी समझती हैं। उनकी सेवा, त्याग और प्रेम ही उनका मन्त्र
है, जिससे वे पुरुष पर विजय पाती हैं । वह में ये गुण नहीं हैं। डोंगा कैसे पार होगा,
ईश्वर हो जाने।
सहसा सुन्नी अन्दर से आ गई। बिलकुल अपने चित्र की रेखा-सी, मानों मनो- हर संगीत की प्रतिध्वनि हो। कुन्दन तपकर भस्म हो गया था। मिठो हुई आशाओं का इससे अच्छा चित्र नहीं हो सकता। उलाहना देतो हुई बोली --- आप न जाने कब से बैठे हुए है, मुझे खबर तक नहीं, और शायद आप बाहर-हो-बाहर चले भी जाते। मैंने आसुओं के वेग को रोकते हुए कहा --- नहीं सुन्नी, यह कैसे हो सकता था। तुम्हारे पास मा हो रहा था कि तम स्वय आ गई।
मदारीलाल छमरे के बाहर अपनी 'कार' को सफ़ाई कराने लगे। शायद मुझे सुन्नी से बातचीत करने का अवसर देना चाहते थे।
सुन्नी ने पूछा --- अम्माँ तो अच्छी तरह हैं।
'हाँ, अच्छी हैं। तुमने अपनी यह क्या गत बना रखी हे ?'
'मैं तो बहुत अच्छी तरह से हूँ ।'
'यह बात क्या है ? तुम लोगों में यह क्या अनबन है ? गोपा देवी प्राण दिये डालती हैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर रही हो। कुछ तो विचार से काम लो।'
सुन्नी के माथे पर बल पड़ गये-आपने नाहक यह विषय छेड़ दिया चाचाजी।
मैंने तो यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि मैं अभागिन हूँ। बम, इसका
निवारण मेरे बूते से बाहर है। मैं उस जीवन से मृत्यु को कहाँ अच्छा समझतो हूँ,