जहाँ अपनी कदर न हो। मैं व्रत के बदले में व्रत चाहती हूँ। जीवन का कोई दूसरा
रूप मेरी समझ में नहीं आता। इस विषय में किसी तरह का समझौता करना मेरे
लिए असम्भव है। नतीजे की मैं परवाह नहीं करती !
'लेकिन। '
'नहीं चाचाजी, इस विषय में अब कुछ न कहिए, नहीं तो मैं चलो जाऊँगी।'
'आखिर सोचो तो...'
'मैं सब सोच चुकी और तय कर चुकी। पशु को मनुष्य बनाना मेरी शक्ति के इसके बाद मेरे लिए अपना मुंह बन्द कर लेने के सिवा और क्या रह गया था?
( ५ )
मई का महीना था। मैं मंसूरी गया हुआ था कि गोपा का तार पहुँचा -'तुरन्त आओ, जरूरी काम है। मैं घबरा तो गया, लेकिन इतना निश्चित था कि कोई दुर्घ- टना नहीं हुई है। दूसरे ही दिन दिल्ली जा पहुँचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गई. निःस्पन्द, मूक निष्प्राण, जैसे तपेदिक का रोगी हो।
मैने पूछा --- कुशल तो है, मैं तो घबरा उठा।
उसने बुझी हुई आँखों से देखा और बोली --- सच !
'सुन्नी तो कुशल से है?'
'हां, अच्छी तरह है।'
'और केदारनाथ'
'वह भी अच्छी तरह है।'
'तो फिर माजरा क्या है ?
'कुछ तो नहीं।'
'तुमने तार दिया और कहती हो --- कुछ तो नहीं।'
'दिल घबरा रहा था, इससे तुम्हें बुला लिया। सुन्नी को किसी तरह समझाकर यहाँ लाना है। मैं तो सब कुछ करके हार गई।'
'क्या इधर कोई नई बात हो गई।'
'नई तो नहीं है, लेकिन एक तरह से नई ही समझो। केदार एक ऐक्ट्रेस के
साथ कहाँ भाग गया। एक सप्ताह से उसका कही पता नहीं है। सुन्नी से कह गया