पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१००
मानसरोवर


घर जाने लगा, तो चची ने कहा-कहाँ जाते हो ? विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गई।

मैंने ठिठककर ताज्जुब के साथ कहा-झड़प हो गई ? किस बात पर !

चची ने सारा-का-सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विमल को जितने काले रगों में रॅग सकी, रँगा--तुमसे क्या कहूँ बेटा, ऐसा मुँहफट तो आदमी ही नहीं देखा। हजारों ही गालियां दी ! लड़ने पर आमादा हो गया।

मैंने एक मिनट तक सन्नाटे में खड़े रहकर कहा-अच्छी बात है; वहाँ न जाऊँगा। बैरक जा रहा हूँ। चची बहुत रोई-चिल्लाई', पर मैं एक क्षणभर भी न ठहरा। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई मेरे हृदय मे भाले भोंक रहा है। घर से बैरक तक पैदल जाने मे शायद मुझे दस मिनट से ज्यादा न लगे होगे। बार-बार जी झुंँझलाता था, चचा साहब पर नहीं, विमल बाबू पर भी नहीं, केवल अपने ऊपर । क्यो मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि जाकर चचा साहब से कह दूँ ----कोई मुझे लाख रुपये भी दे, तो में शादी न करूंगा, मैं क्यों इतना डरपोक, इतना तेजहीन, इतना दब्बू हो गया।

इसी क्रोध में मैंने पिताजी को एक पत्र लिखा और वह सारा वृत्तान्त सुनाने के बाद अन्त मे लिखा- मैंने निश्चय कर लिया है कि और कहीं शादी न करूंगा, चाहे मुझे आपकी अवज्ञा ही क्यो न करनी पड़े। उस आवेश में न जाने क्या-क्या लिख गया, अब याद भी नहीं। इतना ही याद है कि दस-बारह पन्ने दस मिनट मे लिख डाले थे। सम्भव होता तो मैं यही सारी बाते तार से भेजता ।

तीन दिन मैंने बड़ी व्यग्रता के साथ काटे। उसका केवल अनुमान किया जा सकता है। सोचता, तारा हमे अपने मन मे कितना नोच समझ रही होगी। कई बार जी मे आया, चलकर उसके पैरो पर गिर पड़ूं और कहूँ--देवी, मेरा अपराध क्षमा करो। चचा साहब के कठोर व्यवहार की परवा न करो । में तुम्हारा था, और तुम्हारा हूँ। चचा साहब मुझसे बिगड़ जाय, पिताजी घर से निकाल दें, मुझे किसी की परवा नहीं है , लेकिन तुम्हे खोकर तो मेरा जीवन ही खो जायगा।

तीसरे दिन पत्र का जवाब आया। रही-सही आशा भी टूट गई। वही जवान था, जिसकी मुझे शंका थी। लिखा था-भाई साहब मेरे पूज्य हैं। उन्होने जो निश्चय किया है, उसके विरुद्ध मैं एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाल सकता, और तुम्हारे लिए भी यही उचित है कि उन्हें नाराज़ न करो ।