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विद्रोही

मैंने उस पत्र को फाड़कर पैरो से कुचल दिया, और उसी वक्त विमल बाबू के घर की तरफ चला । आह ! उस वक्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता, मुझे धमकाता कि उधर मत जाओ, तो मैं विमल बाबू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और ही होता , पर वहाँ मना करनेवाला कौन बैठा था। कुछ दूर चलकर हिम्मत हार बैठा । लौट पड़ा। कह नहीं सकता, क्या सोचकर लौटा। चचा साहब को अप्रसन्नता का मुझे रत्ती भर भी भय न था। उनकी अब मेरे दिल मे ज़रा भी इज्जत न थी। मैं उनकी सारी सम्पत्ति को ठुकरा देने को तैयार था। पिताजी के नाराज हो जाने का भी डर न था। संकोच केवल यह था-कौन मुंह लेकर जाऊँ। आखिर, मैं उन्हीं चचा का भतीजा तो हूँ। विमल चावू मुझसे मुखातिब न हुए या जाते ही जाते दुत्कार किया, तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और क्या रह जायगा। सबसे बड़ी शका यह थी कि कहीं तारा ही मेरा तिरस्कार कर बैठे, तो मेरी क्या गति होगी। हाय ! अहृदय तारा : निष्ठुर तारा ! अबोध तारा ! अगर तूने उस वक्त दो शब्द लिखकर मुझे तसल्ली दे दी होती, तो आज मेरा जीवन कितना सुखमय होता! तेरे मौन ने मुझे मटियामेट कर दिया - सदा के लिए। आह ! सदा के लिए ।

( ३ )

तीन दिन फिर मैंने अ गारों पर लोट-लोटकर काटे । ठान लिया था कि अब किसी से न मिलूँगा । सारा संसार मुझे अपना शत्रु-सा दीखता था। तारा पर भो क्रोध आता था। चचा साहब की तो सूरत से मुझे घृणा हो गई थी , मगर तीसरे दिन शाम को चचाजी का रुका पहुँचा। मुझसे आकर मिल जाओ। जी में तो आया, लिख दूँ, मेरा आपसे कोई सम्बन्ध नहीं, आप समझ लीजिए, मैं मर गया , मगर फिर उनके स्नेह और उपकारों की याद आ गई। खरी-खरी सुनाने का भी अच्छा अवसर मिल रहा थि । हृदय मे युद्ध का नशा और जोश भरे हुए मैं चचाजी की सेवा मे पहुंच गया।

चचाजी ने मुझे सिर से पैर तक देखकर कहा-क्या आजकल तुम्हारी तबीअत अच्छी नहीं है ? आज रायसाहव सीताराम तशरीफ लाये थे। तुमसे कुछ बातें करना चाहते हैं। कल सबेरे मौका मिले, तो चले आना या तुम्हे लौटने की जल्दी न हो तो मैं इसी वक्त बुला भेजूं ।

मैं समझ गया कि यह रायसाहब कौन है , लेकिन अनजान बनकर बोला-यह रायसाहब कौन हैं ? मेरा तो उनसे परिचय नहीं है।