चाचाजी ने लापरवाही से कहा-~-अजी, यह वही महाशय हैं, जो तुम्हारे व्याह के लिए घेरे हुए हैं । शहर के रईस और कुलीन आदमी है । लड़की भी बहुत अच्छी है। कम-से-कम तारा से कई गुनी अच्छी । मैंने हाँ कर लिया है। तुम्हे भी जो बात पूछनी हों, उनसे पूछ लो !
मैंने आवेश के उमड़ते हुए तूफान को रोककर कहा-आपने नाहक हां की। मैं अपना विवाह नहीं करना चाहता ।
चचाजी ने मेरी तरफ आँखें फाड़कर कहा-~-क्यों ?
मैंने उसी निर्भीकता से जवाब दिया-इसलिए कि मैं इस विषय में स्वाधीन रहना चाहता हूँ।
चचा साहब ने जरा नर्म होकर कहा- मैं अपनी बात दे चुका हूँ, क्या तुम्हें इसका कुछ ख्याल नहीं है ?
मैंने उद्दण्डता से जवाब दिया--जो बात पैसों पर विकती है, उसके लिए में अपनी जिन्दगी नहीं खराब कर सकता ।
चचा साहब ने गम्भीर भाव से कहा- यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?
'जी हाँ, आखिरी ।
'पछताना पड़ेगा।
'आप इसकी चिन्ता न करें। आपको कष्ट देने न आऊँगा।'
'अच्छी बात है।'
यह कहकर वह उठे और अन्दर चले गये। मैं कमरे से निकला, और बैरक की तरफ चला। सारी पृथ्वी चक्कर खा रही थी, आसमान नाच रहा था और मेरो देह हवा में उड़ी जाती थी । मालूम होता था, पैरों के नीचे जमीन है ही नहीं।
बैरक में पहुंचकर मैं पलंग पर लेट गया और फूट-फूटकर रोने लगा। माँ बाप, चचा-चाची, धन-दौलत, सब कुछ होते हुए भी में अनाथ था । उफ ! कितना निर्दय आघात था।
( ४ )
समेरे हमारे रेजिमेंट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ। मुझे आँखें-सी मिल
गई। अब लखनऊ काटे खाता था । उसके गली-कूचों तक से घृणा हो गई थी। एक