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मानसरोवर


मैंने जाकर कमांडिंग आफिसर से कहा- मुझे एक बड़े ज़रूरी काम से लखनऊ जाना है। तीन दिन की छुट्टी चाहता हूँ।

साहब ने कहा-~~-अभी छुट्टी नहीं मिल सकती ।

'मेरा जाना जरूरी है। -

'तुम नहीं जा सकते।

'मैं किसी तरह नहीं रुक सकता।'

'तुम किसी तरह नहीं जा सकते।'

मैंने और अधिक आग्रह न किया। वहां से चला आया। रात की गाड़ी से लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया। कोर्ट मार्शल का अब मुझे ज़रा भी डर न था ।

( ५ )

जब मैं लखनऊ पहुंचा, तो शाम हो गई थी। कुछ देर तक मैं प्लेटफार्म से दूर खड़ा खूब अंधेरा हो जाने का इन्तजार करता रहा । तब अपनी किस्मत के नाटक का सबसे भीषण कांड देखने चला । चरात द्वार पर आ गई थी । गैस की रोशनी हो रही थी । बराती लोग जमा थे । हमारे मकान की छत तारा की छत से मिली हुई थी। रास्ता मरदाना कमरे की बगल से था। चचा साहब शायद कहीं सैर करने गये हुए थे। नौकर-चाकर सब बरात की बहार देख रहे थे। मैं चुपके से जीने पर चढा और छत पर जा पहुंचा। वहाँ इस वक्त बिलकुल सन्नाटा था। उसे देखकर मेरा दिल भर आया। हाय ! यही वह स्थान है, जहाँ हमने प्रेम के आनन्द उठाये थे। यहीं में तारा के साथ बैठकर ज़िदगी के मनसूबे बाँधता था। यही स्थान मेरी आशाओं का स्वर्ग और मेरे जीवन का तीर्थ था। इस जमीन का एक-एक अणु मेरे लिए मधुर स्मृतियों से पवित्र था , पर हाय ! मेरे हृदय की भांति आज वह भी ऊजह, सुनसान अँधेरा था। मैं उस जमीन से लिपटकर खूब रोया, यहां तक कि हिचकियाँ बंध गई । काश उस वक्त तारा वहाँ आ जाती, तो में उसके चरणों पर सिर रखकर हमेशा के लिए सो जाता। मुझे ऐसा भासित होता था कि तारा की पवित्र आत्मा मेरी दशा पर रो रही है। आज भी तारा यहाँ जहर आई होगी। शायद इसी जमीन पर लिपटकर वह भी रोई होगी। उस भूमि से उसके सुगन्धित केशों की महक आ रही थी। मैंने जेब से रूमाल निकाला और वहाँ की धूल जमा करने लगा। एक क्षण में मैंने सारी छत साफ कर डाली और अपनी अभिलाषाओं की इस राख को