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मानसरोवर


वृद्धा विस्मित होकर मेरा मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी।

मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा-जब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों कीजिए। आप मेरे साथ यह दगा करेंगी, यह मैं न समझता था । खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चचा और बाप को आँखो से गिरकर मैं शायद आपको आँखों में भी न जॅचता ।

बुढिया ने मेरी तरफ शिकायत को नजरों से देखकर कहा-तुम हम लोगो को इतना स्वार्थी समझते हो बेटा!

मैंने जले हुए हृदय से कहा-अब तक तो न समझता था, लेकिन परिस्थिति ने ऐसा समझने को मजबूर किया। मेरे खून का प्यासा दुश्मन भी मेरे उपर इससे घातक वार न कर सकता था। मेरा खून आप ही की गरदन पर होगा ।

'तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया।'

'आप लोगों ने मुझसे भी कुछ पूछा, मुझसे भी कुछ कहा, मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया ? आपने तो ऐसी निगाहे फेरी, जैसे आप दिल से यही चाहती थी; मगर अब आपसे शिकायत क्यों करूँ । तारा खुश रहे, मेरे लिए यही बहुत है।'

'तो बेटा, तुमने भी तो कुछ नहीं लिखा , अगर तुम एक पुरजा भी लिख देते, तो हमें तस्कीन हो जाती। हमें क्या मालम था कि तुम तारा को इतना प्यार करते हो। हमसे ज़रूर भूल हुई; मगर उससे बड़ी भूल तुमसे हुई। अब मुझे मालूम हुआ कि तारा क्यों बराबर डाकिये को पूछती रहती थी। अभी कल वह दिन-भर डाकिये को राह देखती रही। जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया, तब वह निराश हो गई। बुला दूँ उसे ? मिलना चाहते हो ?'

मैंने चारपाई से उठकर कहा-नहीं-नहीं, उसे मत बुलाइए। मैं अब उसे नहीं देख सकता ! उसे देखकर मैं न जाने क्या कर बैठूँ।

यह कहता हुआ मैं चल पड़ा । तारा की माँ ने कई बार पुकारा , पर मैंने पीछे फिरकर भी न देखा।

यह है मुझ निराश को कहानी । इसे आज दस साल गुज़र गये। इन दस सालों मे मेरे ऊपर जो कुछ बीतो, उसे मैं ही जानता हूँ। कई-कई दिन मुझे निराहार रहना पड़ा है।, फौज से तो उसके तीसरे ही दिन निकाल दिया गया था। अब मारे-मारे