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उन्माद


ही मेरे हौसलों को उभारा, मुझे उत्तेजना दी। जब कभी मेरा उत्साह टूटने लगता था, तुम मुझे तसल्ली देती थीं । मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि तुम घर का प्रबन्ध कसे करती हो। तुमने मोटे-से-मोटा काम अपने हार्थों से किया, जिसमें मुझे पुस्तको के लिए रुपये की कमी न हो। तुम्ही मेरी देवी हो और तुम्हारी बदौलत ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं तुम्हारी इन सेवाओं की स्मृति को हृदय में सुरक्षित रखूँगा बागी, और एक दिन वह आयेगा, जब तुम अपने त्याग और तप का आनन्द उठाओगी।

बागीश्वरी ने गद्गद होकर कहा-तुम्हारे यह शब्द मेरे लिए सबसे बड़े पुरस्कार हैं मानू ! मैं और किसी पुरस्कार की भूखी नहीं। मैंने जो कुछ तुम्हारी थोड़ी-बहुत सेवा की, उसका इतना यश मुझे मिलेगा, मुझे तो आशा भी न थी।

मनहरनाथ का हृदय इस समय उदार भावो से उमड़ा हुआ था। वह थी बहुत ही अल्पभाषी कुछ रूखा आदमी था और शायद वागीश्वरी को मन में उसकी शुष्कता पर दुख भी हुआ हो, पर इस समय सफलता के नशे ने उसको वाणी मे पर-से लगा दिये थे । बोला- जिस समय मेरे विवाह की बातचीत हो रही थी, मैं बहुत शकित था। समझ गया कि मुझे जो कुछ होना था, हो चुका। अब सारी उन देवीजी की नाजबरदारी में गुजरेगी । बड़े-बड़े अंगरेज विद्वानों की पुस्तकें पढने से मुझे भी विवाह से घृणा हो गई थी। मैं इसे उम्र- कैद समझने लगा था, जो आत्मा और बुद्धि की उन्नति का द्वार बन्द कर देती है, जो मनुष्य को स्वार्थ का भक्त बना देती है, जो जोवन के क्षेत्र को सकीर्ण कर देती है, मगर दो ही चार मास के बाद मुझे अपनी भूल मालूम हुई। मुझे मालूम हुआ कि सुभार्या स्वर्ग की सबसे बड़ी विभूति है, जो मनुष्य के चरित्र को उज्ज्वल और पूर्ण बना देती है, जो आत्मोन्नति का मूल मन्त्र है। मुझे मालूम हुआ कि विवाह का उद्देश्य भोग नहीं, आत्मा का विकास है।

वागीश्वरी को नम्रता और सहन न कर सकी। वह किसी बात के बहाने से उठकर चली गई।

मनहर और वागेश्वरी का विवाह हुए तीन साल गुज़रे थे। मनहर उस समय एक दप्तर में क्लर्क था। सामान्य युवकों की भांति उसे भी जासूसी उपन्यासों से बहुत प्रेम था। वीरे-धीरे उसे जासूमी का शौक हुआ। इस विषय पर उसने बहुत- सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उनका अध्ययन किया । इसके बाद उसने