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उन्माद

मनहर का रहन-सहन तो अँगरेजी था ही, घरवालों से भी सम्बन्ध-विच्छेद हो

गया था। बागीश्वरी के पत्रों का उत्तर देना तो दूर रहा, उन्हें खोलकर पढता भी न था। भारत में उसे हमेशा यह शंका बनी रहती थी कि कहीं घरवालों को उसका पता न चल जाय । जेनी से वह अपनी यथार्थ स्थिति को छिपाये रखना चाहता था। उसने घरवालों को अपने आने की सूचना तक न दी । यहाँ तक कि वह हिन्दुस्तानियों से बहुत कम मिलता था। उसके मित्र अधिकाश पुलीस और फौज के अफसर थे। वहीं उसके मेहमान होते । वाकचतुर जेनी सम्मोहन-कला में सिद्धहस्त थी। पुरुषो के प्रेम से खेलना उसकी सबसे आमोदमय कीड़ा थी। जलाती भी थी, रिझाती भी थी, ओर मनहर भी उसकी कपट-लोला का शिकार बनता रहता था। उसे वह हमेशा भूल-भुलैया मे रखती, कभी इतना निकट कि छाती पर सवार, कभी इतनी दूर की योजनो का अन्तर --कभी निष्ठूर और कठोर, कभी प्रेम-विह्वल और व्यग्र। एक रहस्य था, जिसे वह कभी समझता -था, कभी हैरान रह जाता था।

इस तरह दो वर्ष बीत गये और मनहर और जेनी कोण की दो भुजाओं की भांति एक दूसरे से दूर होते गये। मनहर इस भावना को हृदय से न निकाल सकता था कि जेनी का मेरे प्रति एक विशेष कर्तव्य है। यह चाहे उसकी सकीर्णता हो, या कुल-सर्यादा का असर कि वह जेनी को पाबन्द देखना चाहता था। उसकी वच्छन्द वृत्ति उसे लज्जास्पद मालूम होती थी। वह भूल जाता था कि जेनी से उसके सपर्क का आरम्भ ही स्वार्थ पर अवलथित था। शायद उसने समझा था कि समय के साथ जेनी को अपने कर्तव्य का ज्ञान हो जायगा, हालांकि उसे मालूम होना चाहिए था कि टेढी बुनियाद पर बना हुआ पवन जल्द या देर में अवश्य भूमिस्थ होकर रहेगा । ओर ऊँचाई के साथ इसकी शंका और भी बढ़ती जाती थी। इसके विपरीत जेनी का व्यवहार विलकुल परिस्थिति के अनुकूल था। उसने मनहर को विनोद- मय, विलासमय जीवन का एक साधन समझा था और उसी विचार पर अब तक स्थिर थी। इस मन्त्र को वह मन मे पति का स्थान न दे सकती थी, पाषाण-प्रतिमा को अपना देवता न बना सकती थी। पत्नी बनना उसके जीवन का स्वप्न न था , इसलिए वह मनहर के प्रति अपने किसी कर्तव्य को स्वीकार न करती थी , अगर मनहर अपनी गाढी कमाई उसके चरणों पर अर्पित करता था, तो उस पर कोई एहसान न करता था।