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मानसरोवर


मनहर उसी का बनाया हुआ पुतला, उसी का लगाया हुआ वृक्ष था। उसकी छाया और फल को भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी।

( ४ )

मनोमालिन्य बढता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसो में जाना छोड़ दिया ; पर जेनी पूर्ववत् सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावतें करती और दावतों में शरीक होती । मनहर के साथ न जाने से उसे लेशमात्र भी दुःख या निराशा न होती थी, बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और भी प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे मे डुबाने का उद्योग करता। पीना तो उसने इङ्गलैण्ड ही में शुरू कर दिया था ; पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ गई थी। वहाँ स्फूर्ति और आनन्द के लिए पीता था, यहाँ स्फूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिए। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था, शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन का यही एक अवलम्ब रह गया था।

गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिए लखनऊ में डेरा डाले हुए था। मुआमला बहुत सगीन था। उसे सिर उठाने की फुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी कुछ खराब हो चला था , मगर जेनी अपने सैर-सपाटे मे मग्न थी। आखिर एक दिन उसने कहा-मैं नैनीताल जा रही हूँ। यहाँ की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।

मनहर ने लाल-लाल आँखें निकालकर कहा-नैनीताल मे क्या काम है ?

वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहाँ कोई सोसाइटी नहीं। सारा लखनऊ पहाड़ों पर चला गया है।

मनहर ने जैसे म्यान से तलवार निकालकर कहा--जब तक मैं यहाँ हूँ, तुम्हे कहीं जाने का अधिकार नहीं है । तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई है, सोसाइटी के साथ नहीं हुई। फिर तुम साफ देख रही हो कि मैं बीमार हूँ, तिस पर भी तुम अपनी विलास-प्रवृत्ति को रोक नहीं सकतीं । मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी जेनी ! मैं तुमको शरीफ समझता था। मुझे स्वप्न में भी यह गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऐसी बेवफाई करोगी। जेनी ने अविचलित भाव से कहा - तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी