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उन्माद


हिन्दूस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौंडी बनकर रहूँगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊँगी ? मैं तुम्हे इतना नादान नहीं समझती , अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज़ी सभ्यता की इतनी मोटी-सी बात मालूम नहीं, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज़ स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पावन्द नहीं। तुमने मुझसे इसलिए विवाह किया था कि मेरी सहायता से तुम्हें सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऐसा करते हैं और तुमने भी वही किया। मैं इसके लिए तुम्हे बुरा नहीं कहती, लेकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिए तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा क्यो रखते हो ? तुम हिन्दुस्तानी हो, अगरेज़ नहीं हो सकते। मैं अगरेज़ हूंँ और हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती , इसलिए हममें से किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरे को अपनी मर्जी का गुलाम बनाने की चेष्टा करे।

मनहर हतबुद्धि-सा बैठा सुनता रहा। एक-एक शब्द विष की घूँट की भांति उसके कण्ठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था । पद-लालसा के उस प्रचण्ड आवेग में, विलास-तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऐसा तत्त्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने करुण विलाष से उसकी मदमग्र चेतना को तड़पाने लगा।

शाम को जेनी नैनीताल चली गई। मनहर ने उसकी ओर आंख उठाकर भी न देखा।

( ५ )

तीन दिन तक मनहर घर से न निकला। जोवन के पांच-छ वर्षों मे उसने जितने रत्न संचित किये थे, जिन पर वह गर्व करता था, जिन्हें पाकर वह अपने को धन्य मानता था, अब परीक्षा को कसौटी पर आकर नकली पत्थर सिद्ध हो रहे थे। उसकी अपमानित, ग्लानित, पराजित आत्मा एकांत रोदन के सिवा और कोई त्राण न पाती थी। अपनी टूटी झोपड़ी को छोड़कर वह जिस सुनहले कलशवाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी, और अब उसे फिर उसी टूटी झोपड़ी की याद आई, जहां उसने शांति, प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी। यह सारा आडम्बर उसे काटे खाने लगा। उस सरल शीतल स्नेह के सामने ये सारी विभूतियों तुच्छ-सी जँचने लगी। तीसरे दिन वह भीषण प्रकल्प करके उठा और दो पत्र लिखे । एक तो अपने