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मानसरोवर

उसके लिए आवश्यक था । इसी घोड़े पर बैठकर वह शिकार खेलती थी। घोड़े के वगैर शिकार का आनन्द कहाँ !

मगर एक सप्ताह हो जाने पर भी मनहर की मानसिक दशा में कोई अंतर न हुआ। न मित्रों को पहचानता, न नौकरों को । पिछले तीन बरसों का उसका जीवन एक स्वप्न की भाँति मिट गया था।

सातवें दिन जेनी सिविल सर्जन को लेकर आई, तो मनहर का कहीं पता न था।

( ७ )

पाँच साल के बाद बागीश्वरी का लुटा हुआ सोहाग फिर चेता । माँ-बाप पुत्र के वियोग में रो-रोकर अंधे हो चुके थे। वागीश्वरी निराशा मे भी आस बाँधे बैठी हुई थी। उसका मायका सपन्न था। बार-बार बुलावे आते, बाप आया, भाई आया, पर वह धैर्य और व्रत को देवी घर से न टली ।

जब मनहर भारत आया, तो वागीश्वरी ने सुना, वह विलायत से एक मेम लाया है। फिर भी उसे आशा थी कि वह आयेगा, लेकिन उसकी आशा पूरी न हुई। फिर उसने सुना, वह ईसाई हो गया है और आचार-विचार त्याग दिया है, तब उसने माथा ठोंक लिया।

घर की अवस्था दिन-दिन बिगड़ने लगी। वर्षा बन्द हो गई और सागर सूखने लगा । घर बिका, कुछ ज़मीन थी वह बिकी, फिर गहनो की बारी आई, यहां तक कि अब केवल आकाशी-वृत्ति थी। कभी चूल्हा जल गया, कभी ठढा पड़ रहा।

एक दिन सन्ध्या समय वह कुएं पर पानी भरने गई थी कि एक थका हुआ, जीर्ण, विपत्ति का मारा-जैसा आदमी आकर कुएँ की जगत पर बैठ गया। वागीश्वरी ने देखा तो मनहर। उसने तुरन्त घूँघट बढा लिया। आँखों पर विश्वास न हुआ, फिर भी आनन्द और विस्मय से हृदय मे फुरेरियाँ उड़ने लगी। रस्सी और कलसा कुएँ पर छोड़कर लपकी हुई घर आई और सास से बोली-अम्मांजी, जरा कुएं पर जाकर देखो, कोई आया है। सास ने कहा-तू पानी लाने गई थी, या तमाशा देखने ? घर में एक बूंद पानी नहीं है। कौन आया है कुएं पर ?

'चलकर देख लो न ।'

'कोई सिपाही-प्यादा होगा। अब उनके सिवा और कौन आनेवाला है। कोई महाजन तो नहीं है?