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मानसरोवर


श्वरी को अब उसके प्रेम मे एक अस्वाभाविक अनुराग दीखता था, जो बनावटी मालूम होता था। वह चाहती थी कि उसके व्यवहार और आचरण मे पहले की-सी बेतकल्लुफी हो । वह प्रेम का स्वांग नहीं, प्रेस चाहती थी। दस ही पांच दिनों में उसे ज्ञात हो गया कि इस विशेष अनुराग का कारण बनावट या दिखावा नहीं, वरन् कोई मानसिक विकार है। मनहर ने मां-बाप का इतना अदब पहले कभी न किया था। उसे अब मोटे-से-मोटा काम करने में भी संकोच न था। वह जो बाज़ार से साग-भाजी लाने मे अपना अनादर समझता, अव कुएं से पानी खींचता, लकड़ियाँ फाड़ता और घर में , झाड़ू लगाता था, और अपने घर में ही नहीं, सारे महल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी।

एक बार महल्ले में चोरी हुई। पुलिस ने बहुत दौड़-धूप की , पर चोरी का पता न चला । मनहर ने चोरी का पता ही नहीं लगा दिया , बल्कि माल भी बरामद करा लिया। इससे आस-पास के गाँवो और महत्लो में उसका यश फैल गया। कोई चोरी हो जाती, तो लोग उसके पास दौड़े आते और अधिकांश उसके उद्योग सफल होते थे। इस तरह उसकी जीविका को एक व्यवस्था हो गई। वह अब वागीश्वरी के इशारों का गुलाम था। उसी की दिलजोई और सेवा मे उसके दिन कटते थे, अगर उसमे विकार या बीमारी का कोई लक्षण था, तो इतना ही। यही सनक उसे सवार हो गई थी।

वागीश्वरी को उसकी दशा पर दुख होता था -पर उसकी यह बीमारी उस स्वास्थ्य से उसे कहीं प्रिय थी, जब वह उसकी बात भी न पूछता था ।

( ८ )

छः महीनों के बाद एक दिन जेनी मनहर का पता लगाती हुई आ पहुँची। हाथ में जो कुछ था, वह सब उड़ा चुकने के बाद अब उसे किसी आश्रय की खोज थी। उसके चाहनेवालों मे कोई ऐसा न था, जो उसकी आर्थिक सहायता करता। शायद अब जेनी को कुछ ग्लानि भी आती थी। वह अपने किये पर लज्जित थी।

द्वार पर हार्न की आवाज़ सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा, मानो उसे कभी देखा नहीं है।

जेनी ने मोटर से उतरकर उससे हाथ मिलाया और अपनी बीती सुनाने लगी-तुम इस तरह मुझसे छिपकर क्यों चले आये? और फिर आकर एक-पत्र भी नहीं लिखा ।