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मानसरोवर

वागीश्वरी ने बेपरवाई से जवाब दिया- मेरे लिए तो इनका बीमार रहना इनके स्वस्थ रहने से कहीं अच्छा है। तब वह अपनी आत्मा को भूल गये थे, अब उसे पा गये।

फिर उसने निर्दय कटाक्ष करके कहा- मेरे विचार मे तो वह तब बीमार थे, अब स्वस्थ हैं।

जेनी ने चिढकर कहा-नानसेंस ! इनकी किसी विशेषज्ञ से चिकित्सा करानी होगी। यह जासूसी में बड़े कुशल हैं । इनके सभी अफसर इनसे प्रसन्न थे। वह चाहे तो अब भी इन्हे वह जगह मिल सकती है। अपने विभाग में ऊँचे-से-ऊँचे पद तक पहुँच सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इनका रोग असाध्य नहीं है, हाँ, विचित्र अवश्य है। आप क्या इनकी बहन हैं ?

वागीश्वरी ने मुस्किराकर कहा--आप तो गाली दे रही हैं । वह मेरे स्वामी हैं।

जेनी पर मानो वज्रपात-सा हुआ । उसके मुख पर से नम्रता का आवरण हट गया और मन मे छिपा हुआ क्रोध जैसे दांत पीसने लगा। उसकी गरदन की नसें तन गई , दोनो मुढ़ियों बँध गई। उन्मत्त होकर बोली-बड़ा दगाबाज़ आदमी है । इसने मुझे बड़ा धोखा दिया । मुझसे इसने कहा था, मेरी स्त्री मर गई है । कितना बड़ा धूर्त है! यह पागल नहीं है। इसने पागलपन का स्वांग भरा है। मैं अदालत से इसकी सजा कराऊँगी।

क्रोधावेश के कारण वह काँप उठी । फिर रोती हुई बोली --- इस दगाबाज़ी का मैं इसे मज़ा चखाऊँगी । ओह ! इसने मेरा कितना घोर अपमान किया है ! ऐसा विश्वासघात करनेवाले को जो दण्ड दिया जाय, वह थोड़ा है। इसने कैसी मीठी-मीठी बातें करके मुझे फाँसा। मैंने ही इसे जगह दिलाई । मेरे ही प्रयत्नो से यह बड़ा आदमी बना । इसके लिए मैंने अपना घर छोड़ा, अपना देश छोड़ा, और इसने मेरे साथ ऐसा कपट किया।

जेनी सिर पर हाथ रखकर बैठ गई। फिर तैश मे उठी और मनहर के पास जाकर उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली-मैं तुझे खराब करके छोड़ूँगी। तूने मुझे समझा क्या है ........

मनहर इस तरह शान्त भाव से खड़ा रहा, मानो उससे कोई प्रयोजन नहीं है ।

फिर वह सिंहिनी की भांति मनहर पर टूट पड़ी और उसे ज़मीन पर गिराकर