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मानसरोवर

मेरे गुरु आप है, मेरे राजा आप हैं। मुझे अपने चरणों से न हटाइए, मुझे ठुकराइए नहीं । मैं सेवा और प्रेम के फूल लिये, कर्तव्य और व्रत की भेंट अञ्चल में सजाये आपकी सेवा मे आई हूँ। मुझे इस भेंट को, इन फूलों को अपने चरणों पर रखने दीजिए । उपासक का काम तो पूजा करना है। देवता उसकी पूजा स्वीकार करता है। या नहीं, यह सोचना उसका धर्म नहीं ।

मेरे सिरताज, शायद आपको पता नही, आजकल मेरी क्या दशा है। यदि मालूम होता तो आप इस निष्ठुरता का व्यवहार न करते । आप पुरुष हैं, आपके हृदय में दया है, सहानुभूति है, मैं विश्वास नहीं कर सकती कि आप मुझ-जैसी नाचीज पर क्रोध कर सकते हैं। मैं आपकी दया के योग्य हूँ-कितनी दुर्बल, कितनी अपङ्ग, कितनी बेज़बान । आप सूर्य हैं, मैं अणु हूँ, आप अग्नि हैं, मै तृण हूँ, आप राजा हैं, मैं भिखारिन हूँ। क्रोध तो बरोबरवालों पर करना चाहिए, मैं भला आपके क्रोध का आघात कैसे सह सकती हूँ। अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं हूँ, तो मुझे अपने हाथों से विष का प्याला दे दीजिए। मैं उसे सुधा समझकर सिर और आँखो से लगाऊँगी और आँखें बन्द करके पी जाऊँगी। जब यह जीवन आपकी भेंट हो गया, तो आप इसे मारें या जिलाये, यह आपकी इच्छा है । मुझे यही सन्तोष काफी है कि मेरी मृत्यु से आप निश्चिन्त हो गये । मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मैं आपकी हूँ और सदैव आपकी रहूँगी, इस जीवन में ही नहीं , बल्कि अनन्त तक ।

अभागिनी,

--कुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे कुसुम पर भी झुंँझलाहट आने लगी और उस लौंडे से तो घृणा हो गई। माना, तुम स्त्री हो, आजकल के प्रथानुसार पुरुष को तुम्हारे ऊपर हर तरह का अधिकार है । लेकिन नम्रता की भी तो कोई सीमा होती है ? स्त्री में कुछ तो मान, कुछ ती अकड़ होनी चाहिए। अगर पुरुष उससे ऐंठता है, तो उसे भी चाहिए कि उसकी बात न पूछे। स्त्रियों को धर्म और त्याग का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर हमने उनके आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास दोनों ही का अन्त कर दिया , अगर पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं, तो स्त्री पुरुष की मुहताज क्यो हो ? ईश्वर ने पुरुष को हाथ दिये हैं, तो क्या स्त्री को उससे वंचित रखा है ? पुरुष के पास बुद्धि है , तो क्या स्त्री अबोध है ? इसी नम्रता ने तो मरदों का मिज़ाज आसमान पर पहुंचा दिया । पुरुष रूठ गया‌