खुशी की और कोई बात नहीं हो सकती , लेकिन जानता हूँ, तुम्हारा क्या
हाल होगा।
जैनब - या हजरत ! खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया है। दुनिया के लिए अपनी नजात को नहीं खोना चाहती ।
हजरत-जैनव, खुदा की राह मे कांटे हैं।
जैनब-अब्बाजान, लगन को काँटो की परवा नहीं होती ।
हजरत · ससुराल से नाता टूट जायगा।
जैनब--- खुदा से तो नाता जुड़ जायगा ?
हज़रत-और अवुलआस ? .
जैनब को आँखों में आँसू डबडबा आये। क्षीण स्वर में बोली--अब्बाजान, उन्होंने इतने दिनों मुझे बाँध रखा था, नहीं तो मैं कबकी आपकी शरण आ चुकी होती। मैं जानती हूँ, उनसे जुदा होकर मैं ज़िन्दा न रहेगी, और शायद उनसे भी मेरा वियोग न सहा जाय ; पर मुझे विश्वास है कि वह किसी-न-किसी दिन ज़रूर खुदा पर ईमान लायेंगे और फिर मुझे उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।
हजरत- बेटी, अवुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सद्वत्ता है , किन्तु उसका अंहकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे। वह तकदीर को नहीं मानता, रूह को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता । कहता है, खुदा की ज़रूरत ही क्या है, हम उससे क्यों डरें, विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है। ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। कुफ्र को तोड़ना आसान है। लेकिन वह जब दर्शन की सूरत पकड़ लेता है, तो उस पर किसी का ज़ोर नहीं चलता। ..
जैनब ने दृढ होकर कहा----या हज़रत, आत्मा का उपकार जिसमें हो, मुझे वही चाहिए। मैं किसी इन्सान को अपने और खुदा के बीच मे न आने दूंगी।
हज़रत ने कहा- खुदा तुझ पर दया करे बेटी, तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया।
यह कहकर उन्होंने जैनब को गले लगा लिया ।
( ३ )
दूसरे दिन जैनव को यथाविधि आम मसजिद मे क्लमा पढाया गया।