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न्याय

( ६ )

घोर सग्राम हुआ। दोनों दलवालों ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया, मज़हब का बन्धन रक्त और वीर्य के बन्धन से सुदृढ है ।

दोनों दलवाले वीर थे । अन्तर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी। दिलों मे वह अटल विश्वास था, जो नवजात सप्रदायों का लक्षण है । विधर्मियो में 'बलिदान' का यह भाव लुप्त था।

कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी ; पर अन्त मे उनके धर्मोत्वाह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में कितने ही मारे गये, कितने ही घायल हुए, और कितने ही कैद कर लिये गये। अवुलआस भी इन्हीं कैदियों में थे।

जैनब ने ज्योही सुना कि अबुलआस पकड़ लिये गये, उसने तुरन्त हजरत मुहम्मद की सेवा मे मुक्ति-धन भेजा। यह वही बहुमूल्य, हार था, जो खुदैजा ने उसे दिया था। जैनव अपने पूज्य पिता को उस धर्म-सकट में एक क्षण के लिए भी न डालना चाहती थी, जो मुक्ति-धन के अभाव की दशा में उन पर पड़ता , किन्तु अवुलआस को इच्छा होते हुए भी पक्षपात-भय से न छोड़ सके ।

सब कैदी हज़रत के सामने पेश किये गये। कितने ही तो ईमान लाये, कितनों के घरो से मुक्ति-धन आ चुका था, वे मुक्त कर दिये गये। हजरत ने अबुलआस को देखा, सबसे अलग सिर झुकाये खड़े हैं। मुख पर लज्जा का भाव झलक रहा है।

हज़रत ने कहा-अबुलआस, खुदा ने इस्लाम की हिमायत की, वरना उसे यह विजय न प्राप्त होती।

अबुलआस-अगर आपके कथनानुसार संसार मे एक खुदा है, तो वह अपने एक बन्दे को दूसरे का गला काटने में मदद नहीं दे सकता। मुसलमानों को विजय उनके रणोत्साह से हुई।

एक सहाबी ने पूछा-तुम्हारा फिदिया ( मुक्ति-धन ) कहाँ है ?

हजरत ने फरमाया--अबुलआस का हार निहायत बेशकीमत है, इनके बारे में आर क्या फैसला करते हैं ? आपको मालूम है, यह मेरे दामाद है।