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न्याय

दूसरे दिन हज़रत मुहम्मद के सामने अबुलआस की पेशी हुई। हज़रत ने एक बार उसकी तरफ करुण-दृष्टि डाली, और सिर झुका लिया। सहाबियों ने कहा-या हज़रत, अबुलआस के बारे में आप क्या फैसला करते हैं ?

मुहम्मद-इसके बारे में फैसला करना तुम्हारा काम है। यह मेरा दामाद है, सम्भव है, में पक्षपात का दोषी हो जाऊँ।

यह कहकर वह मकान मे चले गये। जैनब रोकर पैरो पर गिर पड़ी, और बोली---अब्बाजान, आपने ओरों को तो आजाद कर दिया। अबुलआस क्या उन सबसे गया-बीता है?

हजरत --- नहीं जैनब, न्याय के पद पर बैठनेवाले आदमी को पक्षपात और द्वेष से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि यह नीति मैंने ही बनाई है, तो भी अब उसका स्वामी नहीं, दास हूँ। मुझे अबुलआस से प्रेम है। मैं न्याय को प्रेम-कलकिन नहीं कर सकता।

सहाबी हज़रत की इस नीति-भक्ति पर मुग्ध हो गये। अबुलआस को सव माल- असबाब के साथ मुक्त कर दिया।

अवुलआस पर हज़रत की न्याय-परायणता का गहरा असर पड़ा। मक्के आकर उन्होंने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों का माल लौटाया, कर्ज अदा किया और घर-बार त्यागकर हज़रत मुहम्मद की सेवा मे पहुँच गये। जैनर को मुराद पूरी हुई।



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