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कुत्सा


साहब । यो चचकर नहीं निकल सकते। हम लोग भिक्षा मांग-मांगकर पैसे लाते हैं, इसी लिए कि यार-दोस्तों की दावते हो, शराबे उड़ाई जायँ और मुजरे देखे जाये ?

रोज सिनेमा की सैर होती है। गरीबो का धन यो उड़ाने के लिए नहीं है। यहाँ पाई-पाई का लेखा समझाना पड़ेगा। मैं भरी सभा मे रगेदूंँगी। उन्हे जहाँ पांच सौ वेतन मिलता हो, वहाँ चले जायें । राष्ट्र के सेवक बहुतेरे निकल आयेंगे।

मैं भी एक बार इसी सस्था का मन्त्री रह चुका हूँ। मुझे गर्व है कि मेरे ऊपर कभी किसी ने इस तरह का आक्षेप नहीं किया , पर न जाने क्यों लोग मेरे मन्त्रित्व से सन्तुष्ट नहीं थे। लोगो का खयाल था कि में बहुत कम समय देता हूँ और मेरे समय मे संस्था ने कोई गौरव बढानेवाला कार्य नहीं किया , इसलिए मैंने रूठकर इस्तीफा दे दिया था। मैं उसी पद से बेलौस रहकर भी निकाला गया । महाशय 'ग' हज़ारो हड़प करके भी उसी पद पर जमे हुए हैं। क्या यह मेरे उनसे कुनह रखने की काफी वजह न थी ? मैं चतुर खिलाड़ी की भाँति खुद तो कुछ न करना चाहता था , किन्तु परदे की आड़ से रस्सी खीचता रहता था ।

मैंने रद्दा जमाया-देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं। महागय 'ग' से ज्यादा दिलेर और .

उर्मिला ने मेरी बात काटकर कहा-में ऐसे आदमी को दिलेर नहीं कहती, जो छिपकर जनता के रुपये से शराब पिये। जिन शराब की दूकानों पर हम धरना देने जाते थे, उन्हीं दूकानो से उनके लिए शराब आती थी। इससे बढकर बेवफाई और क्या हो सकती है ? मैं तो ऐसे आदमी को देश-द्रोही कहती हूँ। मैंने और खींची-लेकिन यह तो तुम भी मानती हो कि महाशय 'ग' केवल अपने प्रभाव से हज़ारो रुपये चन्दा वसूल कर लाते हैं। विलायती कपड़े को रोकने का उन्हे जितना श्रेय दिया जाय, थोड़ा है।

उर्मिला देवी कव माननेवाली थीं। बोली-उन्हे चन्दे इस संस्था के नाम पर मिलते हैं, व्यक्तिगत रूप से धेला भी लायें तो कहूँ। रहा विलायती कपड़ा। जनता नामों को पूजती है और महाशय की तारीफें हो रही है , पर सच पूछिए तो यह श्रेय हमे मिलना चाहिए । वह तो कभी किसी दूकान पर गये भी नहीं। आज सारे शहर में इस बात की चर्चा हो रही है। जहाँ चन्दा मागने जाओ, वहीं लोग यहीं आक्षेप करने लगते हैं। किस-किसका मुंह बन्द कीजिएगा। आप बनते तो हैं जाति के