पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४६
मानसरोवर


की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया; पर दोनों ने पाँव न उठाये। एक बार जब उस निर्दयो ने हीरा की नाक में खूब डडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा । हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया। गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनो पकड़ाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है।

मोती ने उसी भाषा मे उत्तर दिया-तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी। अबकी बड़ी मार पड़ेगी।

'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है, तो मार से कहाँ तक बचेंगे।'

'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियां हैं।'

मोती बोला-कहो तो दिखा दूं कुछ मजा मैं भी । लाठी लेकर आ रहा है।

हीरा ने समझाया-नहीं भाई । खड़े हो जाओ।

'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूंगा।'

'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।'

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा, और दोनो को पकड़कर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मार-पीट न की, नहीं मोती भी पलट पड़ता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनो चुप-चाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उसी वक्त एक छोटो-सी लड़की दो रोटियां लिये निकली और दोनों के मुँह मे देकर चली गई। उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती , पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया । यहाँ भी किसी सज्जन का वास है । लड़की भैरो की थी। उसको माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ उसे मारती रहती थी , इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।

दोनो दिन-भर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिये जाते, और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की वह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे , भगर दोनों की आँखों मे, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा मे कहा-अब तो नहीं सहा जाता हीरा ।