पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५०
मानसरोवर

है। इससे तमाम फिर भी अच्छा था । वहाँ कई भैंसें थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे ; पर किसीके सामने चारा न था ; सब जमीन पर मुर्दो की तरह पड़े थे। कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की और टकटकी लगाये ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनो ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की , पर इससे क्या तृप्ति होती।

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी । मोती से बोला- अब तो नहीं रहा जाता मोती।

मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया- मुझे तो मालूम होता है, प्राण निकल रहे हैं।

'इतनी जल्द हिम्मत न हारों भाई ! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।'

'आओ, दीवार तोड़ डाले।'

'मुझसे तो अब कुछ न होगा।'

'बस, इसी बूते पर अकड़ते थे।'

'सारी अकड़ निकल गई।'

बाड़े की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार मे गडा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा । उसने दौड़-दौडकर दोवार पर चोटें की और हर चोट मे थोडी- थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।

उसी समय काँजोहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला। हीरा का यह उजदुपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी-सी रस्सी से बांँध दिया ।

मोती ने पड़े-पड़े कहा-आखिर मार खाई, क्या मिला ?

'अपने बूते-भर जोर तो मार लिया !'

'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन मे पड़ गये।'

'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जायें।'

'जान से हाथ धोना पड़ेगा।'