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दो बैलों की कथा


वोटी कॉप रही थी। बेचारे पाव तक न उठा सकते थे; पर भय के मारे गिरते- पड़ते भागे जाते थे, क्योंकि वह ज़रा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था।

राह में गाय-बैलों का एक रेवड़ हरे-हरे हार में चरता नज़र आया । सभी जान- वर प्रसन्न थे, चिकने, चपल । कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका , पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई वधिक के हाथ पड़े कैसे दुखी हैं।

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था । वही खेत, वही बारा, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनको चाल तेज़ होने लगी। सारी थकन, सारी दुर्बलता गायब हो गई। अहा । यह लो अपना झी हार आ गया । इसी कुएं पर हम पुर चलाने आया करते थे, हाँ, यही कुआं है।

मोतो ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया ।

हीरा बोला-भगवान् की दया है।

'मैं तो अब घर भागता हूँ।'

'यह जाने देगा’

'इसे मैं मार गिराता हूँ।'

'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जायेंगे।'

दोनो उन्मत्त होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े। वह हमारा थान है। दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये । दढियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हे वारी- चारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आंखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। एक झरी का हाथ चाट रहा था।

दढियल ने जाकर बैलों की रस्सियां पकड़ ली।

झुरी ने कहा- मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे ? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ।'

'मैं तो समझता हूँ, चुराये लिये आते हो । चुपके से चले जाओ। मेरे बैल है।’ मैं बेचूंगा, तो बिकेंगे। किसीको मेरे बैल नीलाम करने का क्या अखतियार है?'