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मानसरोवर


की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मेहता को बुलाकर कहा- मैं चाहता हूँ, साहब बहादुर यहाँ से मेरा कलमा पढते हुए जायें।

मेहता ने सिर झुकाकर विनीत भाव से कहा-चेष्टा तो ऐसी ही कर रहा हूँ, अन्नदाता !

'चेष्टा तो सभी करते हैं, मगर वह चेष्टा कभी सफल नहीं होती। मैं चाहता हूँ, तुम दृढ़ता के साथ कहो-ऐसा ही होगा।'

‘ऐसा ही होगा।'

'रुपये की परवाह मत करो।'

'जो हुक्म ।'

'कोई शिकायत न आये , वरना तुम जानोगे ।'

'वह हुजूर को धन्यवाद देते जाय तो सही ।'

'हाँ, मैं यही चाहता हूँ।

'जान लड़ा दूंँगा, दीनबन्धु ।'

'अब मुझे सतोष है।'

इधर तो पोलिटिकल एजेन्ट का आगमन था, उधर मेहता का लड़का जयकृष्ण गर्मियों की छुट्टियां मनाने माता-पिता के पास आया । किसी विश्वविद्यालय में पढ़ता था । एक बार १९३२ में कोई उग्र-भाषण करने के जुर्म में ६ महीने की सज़ा काट चुका था। मि. मेहता की नियुक्ति के बाद जब वह पहली बार आया था तो राजा साहब ने उसे खास तौर पर बुलाया था, और उससे जी खोलकर बातें की थीं, उसे अपने साथ शिकार खेलने ले गये और नित्य उसके साथ टेनिस खेला किये थे। जयकृष्ण पर राजा साहब के साम्यवादी विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा था। उसे ज्ञात हुआ कि राजा साहब केवल देशभक्त ही नहीं, क्रान्ति के समर्थक है। रूस और फ्रांस की क्रान्ति पर दोनों में खूब बहस हुई थी, लेकिन अबकी यहाँ उसने कुछ और ही रंग देखा । रियासत के हरएक किसान और ज़मींदार से जबरन् चन्दा वसूल किया जा रहा था। पुलिस गाँव-गाँव चन्दा उगाहती फिरती थी। रक़म दीवान साहब नियत करते थे । वसूल करना पुलिस का काम था। फरियाद की कहीं सुनवाई न थी ! चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। हजारों मज़दूर सरकारी इमारतों की सफाई, सजावट और सड़कों की मरम्मत मे वेगार भर रहे थे। बनियों से डण्डों के