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रियासत का दीवान


ज़ोर से रसद जमा की जा रही थी। जयकृष्ण को आश्चर्य हो रहा था कि यह क्या हो रहा है। राजा जाहब के विचार और व्यवहार में इतना अन्तर कैसे हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि महाराज को इन अत्याचारों की खबर ही न हो, या उन्होंने जिन तैयारियो का हुक्म दिया हो, उसकी तामील में कर्मचारियों ने अपनी कारगुजारी की धुन में यह अनर्थ कर डाला हो। रात भर तो उसने किसी तरह जब्त किया । प्रात काल उसने मेहताजी से पूछा-आपने राजा साहब को इन अत्याचारों की सूचना नहीं दी ?

मेहताजी को स्वयं इस अनीति से ग्लानि हो रही थी। वह स्वभावत दयालु मनुष्य थे , लेकिन परिस्थितियों ने उन्हे अशक्त कर रखा था। दुखित स्वर में बोले- राजा साहब का यही हुक्म है, तो क्या किया जाय ।

'तो आपको ऐसी दशा में अलग हो जाना चाहिए था । आप जानते हैं, यह जो कुछ हो रहा है, उसकी सारी ज़िम्मेदारी आपके सिर लादी जा रही है। प्रजा आप ही को अपराधी समझती है।'

'मैं मजबूर हूँ। मैंने कर्मचारियों से बार-बार संकेत किया है कि यथासाध्य किसी पर सख्ती न की जाय , लेकिन हरेक स्थान पर में मौजूद तो नहीं रह सक्ता । अगर प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करूँ, तो शायद कर्मचारो लोग महाराज से मेरी शिका- यत कर दें। यह लोग ऐसे ही अवसरों की ताक मे तो रहते ही हैं। इन्हे तो जनता को लूटने का कोई बहाना चाहिए । जितना सरकारी कोष में जमा करते, उससे ज्यादा अपने घर मे रख लेते हैं । मैं कुछ कर ही नहीं सकता।'

जयकृष्ण ने उत्तेजित होकर कहा-तो आप इस्तीफा क्यो नहीं दे देते ?

मेहता लजित होकर बोले-बेशक, मेरे लिए मुनासिव तो यही था , लेकिन भीवन मे इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब और सहने की शक्ति नहीं रही। यह निश्चय है कि नौकरी करके मैं अपने को वेदाग नहीं रख सकता। धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलो में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खाई । मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारो के लिए है, जो अवसर और काल देखकर काम करते हैं। सिद्धान्त- वादियों के लिए यह अनुकूल स्थान नहीं है।

जयकृष्ण ने तिरस्कार-भरे स्वर में पूछा-मैं राजा साहब के पास जाऊँ ।

'क्या तुम समझते हो, राजा साहब से यह बातें छिपी है ?'