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रियासत का दीवान

उसी तरह जैसे कवियों की विरुदावली से हम फूल उठते है, चाहे वह एक क्यों न हो । हम ऐसे कवि को खुशामदी समझे , अहमक भी समझ सकते हैं ; पर उससे अप्रसन्न नहीं हो सकते ; वह हमें जितना ही ऊँचा उठाता है, उतना ही हमारी दृष्टि में ऊँचा उठता जाता है ।

राजा साहब ने अपने भाषण की एक प्रति मेज को दराज से निकालकर जयकृष्ण के सामने रख दी , पर जयकृष्ण के लिए इस भाषण में अब कोई आकर्षण न था । अगर वह सभा-चतुर होता, तो जाहिरदारी के लिए ही इस भाषण को बड़े प्यान से पढता और उसके शब्द-विन्यास और भावोत्कर्ष की प्रशंसा करता, और उसकी तुलना महाराजा बीकानेर या पटियाला के भाषणो से करता, पर अभी दरवारी दुनिया की रीति-नीति से अनभिज्ञ था। जिस चीज़ को बुरा समझता था, उसे बुरा कहता था; जिस चीज़ को अच्छा समझता था, उसे अच्छा कहता । बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा कहना अभी उसे न आया था। उसने भाषण पर सरसरी नजर डालकर उसे मेज पर रख दिया, और अपनी स्पष्टवादिता का बिगुल फूँकता हुआ बोला--में राज- नीति के रहस्यों को भला क्या समझ सकता है, लेकिन मेरा खयाल है कि चाणक्य के यह वंशज इन चालो को खूब समझते हैं और कृत्रिम भावों का उन पर कोई असर नहीं होता , बल्कि इससे आदमी उनकी नज़रों में और भी गिर जाता है। अगर एजेंट को मालूम हो जाय कि उसके स्वागत के लिए प्रजा पर कितने जुल्म ढाये जा रहे हैं, तो शायद वह यहां से प्रसन्न होकर न जाय । फिर, मैं तो प्रजा की दृष्टि देखता हूँ। एजेंट की प्रसन्नता आपके लिए लाभप्रद हो सकती है, प्रजा को तो उससे हानि ही होगी।

राजा साहब अपने किसी काम की आलोचना नहीं सह सकते थे। उनका क्रोध पहले जिरहों के रूप में निकलता, फिर तर्क का आकार धारण कर लेता और अन्त में भूकम्प के आवेश से उबल पड़ता था, जिससे उनका स्थूल शरीर, कुरसी, मेज़, दीवार और छत सभी में भीषण कम्पन होने लगता था। तिरछी आँखों से देखकर बोले- क्या हानि होगी, ज़रा सुन?

जयकृष्ण समझ गया कि क्रोध की मशीनगन चक्कर मे है और घातक स्फोट होने ही वाला है । संभलकर बोला-इसे आप मुझसे ज्यादा समझ सकते हैं।

'नहीं, मेरी बुद्धि इतनी प्रखर नहीं है।'