पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६१
रियासत का दीवान


बो सकते। तुम्हे अपने मुंह पर ताला लगाना होगा, तुम मेरे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाल सकते। चूँ भी नहीं कर सकते

डूबते हुए सूरज की किरणे महरावी दीवानखाने के रंगीन शीशों से होकर राजा साहब के क्रोधोन्मत्त मुख मण्डल को और भी रंजित कर रही थीं। उनके बाल नीले हो गये थे, आँखें पीली, चेहरा लाल और देह हरी। मालूम होता था, प्रेतलोक का कोई पिशाच है। जयकृष्ण की सारी उद्दण्डता हवा हो गई। रोजा साहब को इस उन्माद की दशा में उसने कभी न देखा था , लेकिन इसके साथ हो उसका आत्म- गौरव इस ललकार का जवाब देने के लिए व्याकुल हो रहा था। जैसे विनय का जवाब विनय है, वैसे ही क्रोध का जवाब क्रोध है, जब वह आतङ्क और भय, अदब और लिहाज़ के बन्धनो को तोड़कर निकल पड़ता है।

उसने भी राजा साहब को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा-मैं अपनी आंखों से यह अत्याचार देखकर मौन नहीं रह सकता।

राजा साहब ने आवेश से खड़े होकर, मानो उसकी गरदन पर सवार होते हुए कहा - तुम्हें यहाँ ज़बान खोलने का कोई हक नहीं है।

'प्रत्येक विचारशील मनुष्य को अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का हक़ है। आप वह हक मुझसे नहीं छोन सकते।'

'मैं सब कुछ कर सकता हूं।

'आप कुछ नहीं कर सकते।'

'मैं तुम्हे अभी जेल मे बन्द कर सकता हूं।'

'आप मेरा बाल भी नहीं बांका कर सकते।'

इसी वक्त मि. मेहता बदहवास-से कमरे मे आये और जयकृष्ण की ओर कोप- भरी आँखें उठाकर बोले-कृष्णा-निकल जा यहां से, अभी मेरी आँखों से दूर हो जा, और खबरदार ! फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाना। मैं तुम-जैसे कपृत्त का मुंह नहीं देखना चाहता। जिस थाल में खाता है, उसी में छेद करता है, बेअदव कहीं का ! अब अगर जवान खोली, तो मैं तेरा खून पी जाऊँगा ।

जयकृष्ण ने हिसा-विक्षिप्त पिता को घृणा की आँखो से देखा और अकड़ता हुआ, गर्व से सिर उठाये, दीवानखाने के बाहर निकल गया।

राजा साहब ने कोच पर लेटकर कहा-बदमाश आदमी है, पत्ले सिरे का