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रियासत का दीवान


जो दण्ड-विधान था, वही आपकी स्त्री के लिए भी है। मैं इसमें किसी तरह का उज नहीं चाहता । और इसी वक्त इस हुक्म को तामील होनी चाहिए।

'लेकिन दीनानाथ...'

मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।'

'मुझे कुछ निवेदन करने की आज्ञा न मिलेगी?'

'बिलकुल नहीं, यह मेरा आखिरी हुक्म है।'

मि० मेहता यहाँ से चले, तो उन्हे सुनीता पर बेहद गुस्सा आ रहा था। इन सभी को न जाने क्या सनक सवार हो गई है। जयकृष्ण तो खैर बालक है, बेसमझ है, इस बुढ़िया को क्या सूझो ? न-जाने रानी साहब से जाकर क्या कह आई । किसी को मुझसे हमदर्दी नहीं, सब अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं। किस मुसीबत से मैं अपनी ज़िन्दगी के दिन काट रहा हूँ, यह कोई नहीं समझता । कितनी निराशा और विपत्तियों के बाद यहाँ ज़रा निश्चिन्त हुआ था कि इन सभी ने यह नया तूफान खड़ा कर दिया । न्याय और सत्य का ठोका क्या हमी ने लिया है ? यहाँ भी वही हो रहा है, जो सारी दुनिया मे हो रहा है। कोई नयी बात नहीं है। संसार में दुर्बल और दरिद्र होना पाप है । इसकी सजा से कोई बच ही नहीं सकता है बाज़ कबूतर पर कभी दया नहीं करता। सत्य और न्याय का समर्थन मनुष्य की सज्जनता और सभ्यता का एक अंग है, बेशक। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता; लेकिन जिस तरह और सभी प्राणी केवल मुख से इसका समर्थन करते है, क्या उसी तरह हम भी नहीं कर। सकते। और जिन लोगों का पक्ष लिया जाय, वे भी तो कुछ इसका महत्व समझे। आज राजा साहव इन्हों वेगारो से जरा हँसकर बातें करें, तो वे अपने सारे दुखढ़े भूल जायँगे और उल्टे हमारे हो शत्रु बन जायेंगे। शायद सुनीता महारानी के पास जाकर अपने दिल का बुखार निकाल आई है। गधी यह नहीं समझती कि दुनिया में किसी तरह मान-मर्यादा का निर्वाह करते हुए जिन्दगी काट लेना ही हमारा धर्म है। अगर भाग्य मे यश और कीर्ति वदी होती, तो इस तरह दूसरों की गुलामी क्यों करता , लेकिन समस्या यह है कि इसे भेजूँ कहाँ ? मैके में कोई है नहीं, मेरे घर में कोई है नहीं। उँह ! अब मैं इस चिन्ता में कहाँ तक मरूँ ? जहाँ जी चाहे जाय, जैसा किया है वैसा भोगे।

वह इसी क्षोभ और ग्लानि की दशा मे घर मे गये और सुनीता से बोले -