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मानसरोवर

मौत का स्वागत करती ; लेकिन मैं तुम्हारे साथ अन्याय न करूंँगी । तुम कितने ही निष्ठुर हो, इतने निर्दयी नहीं हो सकते । मैं जानती हूँ, तुम यह समाचार पाते ही आओगे और शायद एक क्षण के लिए मेरी शोक-मृत्यु पर तुम्हारी आँखें रो पड़ें। कहीं मैं अपने जीवन में वह शुभ अवसर देख सकती ।

अच्छा, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकती हैं ? नाराज़ न होना । क्या मेरी जगह किसी और सौभाग्यवती ने ले ली है ? अगर ऐसा है, तो बधाई ! जरा उसका चित्र मेरे पास भेज देना। मैं उसकी पूजा करूंँगी, उसके चरणों पर शीश नवाऊँगी । मैं जिस देवता को प्रसन्न न कर सकी, उसी देवता से उसने वरदान प्राप्त कर लिया। ऐसी सौभागिनी के तो चरण धो-धो पीना चाहिए। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम उसके साथ सुखी रहो। यदि मैं उस देवी की कुछ सेवा कर सकती, अपरोक्ष न सही, परोक्ष रूप से ही तुम्हारे कुछ काम आ सकती । तुम मुझे केवल उसका शुभ नाम और स्थान बता दो, मैं सिर के बल दौड़ी हुई उसके पास जाऊँगी और कहूँगी, देवी, तुम्हारी लौंडी हूँ , इसलिए कि तुम मेरे स्वामी की प्रेमिका हो, मुझे अपने चरणों में शरण दो। मैं तुम्हारे लिए फूलों की सेज बिछाऊँगी, तुम्हारी माँग मोतियों से भरूँगी, तुम्हारी एड़ियों में महावर रचाऊँगी-- यही मेरे जीवन की साधना होगी । यह न समझना कि मैं जलूँगी या कुडूँगी । जलन तब होती है, जब कोई मुझसे मेरी वस्तु छीन रहा हो। जिस वस्तु को अपना समझने का मुझे कभी सौभाग्य ही न हुआ, उसके लिए मुझे क्यों जलन हो ?

अभी बहुत-कुछ लिखना था , लेकिन डाक्टर साहब आ गये हैं। बेचारा हृदयदाह को ‘टी० वी’ समझ रहा है।

दु ख की सताई हुई,


-कुसुम

इन दोनों पत्रों ने मेरे धैर्य का प्याला भर दिया । मैं बहुत ही आवेशहीन आदमी हूँ । भावुकता मुझे छू भी नहीं गई । अधिकांश कलाविदो की भाँति मैं भी शब्दों से आन्दोलित नहीं होता। क्या वस्तु दिल से निकलती है, क्या वस्तु केवल मर्म को स्पर्श करने के लिए लिखो गई है ! यह भेद बहुधा मेरे साहित्यिक आनन्द मे बाधक हो जाता है , लेकिन इन पत्रों ने मुझे आपे से बाहर कर दिया । एक स्थान पर तो सचमुच मेरी आँखें भर आई । यह भावना कितनी वेदनापूर्ण थी कि वहीं‌