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रियासत का दीवान

'राजा साहब इतने न्याय-शून्य हैं कि मेरे पत्र-व्यवहार में रोक-टोक करें ?

'अच्छा ! राजा साहब में इतनी आदमीयत है ? मुझे तो विश्वास नहीं आता।'

'तुम अब भी अपनी गलती पर लज्जित नहीं हो?'

'मैंने कोई गलती नहीं की । मैं तो ईश्वर से चाहती हूँ कि जो मैंने आज किया, वह बार-बार करने का मुझे अवसर मिले।'

मेहता ने अरुचि के साथ पूछा-तुमने कहाँ जाने का इरादा किया है ?

'जहन्नुम में।

'गलतो आप करती हो, गुस्सा मुझ पर उतारती हो?'

'मैं तुम्हें इतना निर्लज न समझती थी।'

'मैं भी इसी शब्द का तुम्हारे लिए प्रयोग कर सकता हूँ।'

'केवल मुख से, मन से नहीं।'

मि० मेहता लजित हो गये।

( ३ )

जब सुनीता की विदाई का समय आया, तो स्त्री-पुरुष दोनों खूब रोये और एक तरह से सुनीता ने अपनी भूल स्वीकार कर ली। वास्तव में इस बेकारी के दिनों में मेहता ने जो कुछ किया, वही उचित था, बेचारे कहाँ मारे-मारे फिरते ।

पोलिटिकल एजेण्ट साहब पधारे और कई दिनों तक खूब दावतें खाई। और खूब शिकार खेला। राजा साहब ने उनकी तारीफ की। उन्होंने राजा साहब की तारीफ की। राजा साहब ने उन्हें अपनी लायलटो का विश्वास दिलाया, उन्होंने सतिया राज्य को आदर्श कहा और राजा साहब को न्याय और सेवा का अवतार स्वीकार किया और तीन दिन में रिसायत को ढाई लाख की वपत देकर विदा हो गये।

मि. मेहता का दिमाग आसमान पर था। सभी उनको कारगुजारी की प्रशंसा कर रहे थे। एजेण्ट साब तो उनकी दक्षता पर मुग्ध हो गये। उन्हे 'राय साहब' की उपाधि मिली और उनके अधिकारों में भी वृद्धि हुई। उन्होंने अपनी आत्मा को उठाकर ताख पर रख दिया था। उनको यह साधना कि महाराज और एजेण्ट दोनों उनसे प्रसन्न रहें, सम्पूर्ण रीति से पूरी हो गई। रियासत में ऐसा स्वामि-भक्त सेवक दूसरा न था।