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मानसरोवर

राजा साहब अब कम-से-कम तीन साल के लिए निश्चिन्त थे। एजेण्ट खुश है, तो फिर किसका भय । कामुकता और लम्पटता और भांति-भांति के दुर्व्यसनों की लहर प्रचण्ड हो उठी। सुन्दरियों की टोह लगाने के लिए सुराग-रसानी का एक विभाग खुल गया, जिसका सम्बन्ध सीधे राजा साहब से था। एक बूढा खुर्राट, जिसका पेशा हिमालय की परियां को फंसाकर राजाओं को लूटना था, और जो इसी पेशे को बदौलत राज-दरबारों में पुजता था, इस विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया । नयी-नयो चिड़ियां आने लगीं। भय और लोभ और सम्मान, सभी अस्त्रों से शिकार खेला जाने लगा , लेकिन एक ऐसा अवसर भी पड़ा, जहाँ इस तिकड़म की सारी सामूहिक और वैयक्तिक चेष्टाएँ निष्फल हो गई और गुप्त-विभाग ने निश्चय किया कि इस बालिका को किसी तरह उड़ा लाया जाय । और इस महत्त्व-पूर्ण कार्य के सम्पादन का भार मि. मेहता पर रखा गया, जिनसे ज़्यादा स्वामि-भक्त सेवक रियासत मे दूसरा न था। उनके ऊपर महाराजा साहब को पूरा विश्वास था। दूसरों के विषय मे सन्देह था कि कहीं रिशवत लेकर शिकार बहका दें, या भण्डाफोड़ कर दें, या अमानत में खयानत कर बैठे। मेहता की ओर से किसी तरह को उन बातो की शंका न थी। रात को नौ बजे उनकी तलबी हुई-अन्नदाता ने हजूर को याद किया है ।

मेहता साहब ड्योढी पर पहुंचे, तो राजा साहब पाईवान में टहल रहे थे। मेहता को देखते ही बोले---आइए मि० मेहता, आपसे एक खास बात में सलाह लेनी है। यहाँ कुछ लोगो की राय है कि सिहद्वार के सामने आपकी एक प्रतिमा स्थापित की जाय, जिससे चिरकाल तक आपकी यादगार कायम रहे। आपको तो शायद इसमें कोई आपत्ति न होगी । और यदि हो भी, तो लोग इस विषय मे आपकी अवज्ञा करने पर भी तैयार हैं। सतिया की आपने जो अमूत्य सेवा की है, उसका पुरस्कार तो कोई क्या दे सकता है । लेकिन जनता के हृदय में आपसे जो श्रद्धा है, उसे तो वह किसी-न-किसी रूप में प्रकट ही करेगी।

मेहता ने बड़ी नम्रता से कहा-यह अन्नदाता की गुण-ग्राहकता है, मैं तो एक तुच्छ सेवक हूँ। मैंने जो कुछ किया, वह इतना ही है कि नमक का हक अदा करने का सदैव प्रयत्न किया ; मगर मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ।

राजा साहब ने कृपालु भाव से हँसकर कहा-~आप योग्य हैं या नहीं, इसका निर्णय आपके हाथ में नहीं है मि० मेहता, आपकी दीवानी यहाँ न चलेगी। हम