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कुसुम

बालिका, जिस पर माता-पिता प्राण छिड़कते रहते थे, विवाह होते ही इतनी विषदग्रस्त हो जाय । विवाह क्या हुआ, मानो उसकी चिंता बनी, या उसकी मौत का परवाना लिखा गया। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसौ वैवाहिक दुर्घटनाएँ कम होती हैं, लेकिन समाज की वर्तमान दशा में उनकी सम्भावना बनी रहती है। जब तक स्त्री-पुरुष के अधिकार समान न होंगे, ऐसे आघात नित्य होते रहेंगे । दुबल को सताना कदाचित् प्राणियों का स्वभाव है। काटनेवाले कुत्ते से लोग दूर भागते हैं, सीधे कुते पर बालवृन्द विनोद के लिए पत्थर फेकते हैं। तुम्हारे दो नौकर एक ही श्रेणी के हो, उनमें कभी झगड़ा न होगा , लेकिन आज उनमें से एक को अफसर और दूसरे को उसका मातहत बना दो, फिर देखो, अफसर साहब अपने मातहत पर कितना रोब जमाते हैं ? सुखमय दाम्पत्य को नींव अधिकार-साम्य ही पर रखी जा सकती है। इस वैषम्य में प्रेम का निवास हो सकता है, मुझे तो इसमे सन्देह है। हम आज जिसे पुरुषों में प्रेम कहते हैं वह वहीं प्रेम है, जो स्वामी को अपने पशु से होता है। पशु सिर झुकाये काम किये चला जाय स्वामी उसे भूसा और खली भी देगा, उसकी देह भी सहलायेगा, उसे आभूषण भी पहनायेगा, लेकिन जानवर ने ज़रा चाल धीमी की, ज़रा गर्दन टेढ़ी की और मालिक का चाबुक पीठ पर पड़ा । इसे प्रेम नहीं कहते ।

खैर, मैंने पाँचवाँ पत्र खोला ।

पाँचवाँ पत्र

जैसा मुझे विश्वास था, आपने मेरे पिछले पत्र का भी उत्तर न दिया । इसका खुला हुआ अर्थ यह है कि आपने मुझे परित्याग करने का संकल्प कर लिया है। जैसी आपकी इच्छा । पुरुष के लिए स्त्री पाँव की जूती है, स्त्री के लिए तो पुरुष देवतुल्य है, बल्कि देवता से भी बढ़कर । विवेक का उदय होते ही वह पति की कल्पना करने लगती है। मैंने भी वही किया । जिस समय में गुड़ियाँ खेलती थी, उसी समय आपने गुड्डे के रूप में मेरे मनोदेश में प्रवेश किया । मैंने आपके चरणों को पखारा, माला-फूल और नैवेद्य से आपका सत्कार किया। कुछ दिनों के बाद कहानियाँ सुनने और पढ़ने की चाट पड़ी, तब आप कथाओं के नायक के रूप में मेरे घर आये । मैंने आपको हृदय में स्थान दिया । बाल्यकाल ही से आप किसी-न-किसी रूप में मेरे जीवन में घुसे हुए थे । वह भावनाएँ मेरे अन्तस्तल की गहराइयों तक पहुंँच गई हैं।