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मानसरोवर

'तो कल जाओगे?'

'हाँ, अवश्य जाऊँगा।'

'यह जरूर कहना कि आप चलकर तहकीकात कर लें।'

'हाँ, यह ज़रूर कहूँगा।'

'और यह भी कह देना कि वलदेवसिंह मेरा भाई है।'

'झूठ बोलने के लिए मुझे मजबूर न करो।'

'तुम मेरे भाई नहीं हो ? मैंने तो हमेशा तुम्हें अपना भाई समझा है।'

'अच्छा, यह भी कह दूंँगा।'

बलदेवसिह को बिदा करके मैंने अपना लेख समाप्त किया। और आराम से भोजन करके लेटा । मैंने उनसे गला छुड़ाने के लिए झूठा वादा कर दिया था। मेरा इरादा हाकिम-जिला से कुछ कहने का नहीं था । मैंने पेशवदी के तौर पर पहले ही जता दिया था कि हुक्काम आम तौर पर पुलिस के मुआमलो मे दखल नहीं देते , इसलिए सजा हो भी गई, तो मुझे यह कहने की काफी गुंजाइश थी कि साहब ने मेरी बात स्वीकार नहीं की।

कई दिन गुज़र गये थे । मैं इस वाकिये को बिलकुल भूल गया था। सहसा एक दिन बलदेवसिह अपने पहलवान बेटे के साथ मेरे कमरे में दाखिल हुए। बेटे ने मेरे चरणों पर सिर रख दिया और अदब से एक किनारे खड़ा हो गया। बलदेवसिह बोले--बिलकुल बरी हो गया भैरो । साहब ने दारोगा को बुलाकर खून डाटा कि तुम भले आदमियों को सताते और बदनाम करते हो । अगर फिर ऐसा झूठा मुकदमा लाये, तो बर्खास्त कर दिये जाओगे । दारोगाजी बहुत झेंपे । मैंने उन्हें झुक- कर सलाम किया। बचा पर धड़ी पानी पड़ गया। यह तुम्हारी सिफारिश का चमत्कार है भाईजान , अगर तुमने मदद न की होती, तो हम तबाह हो गये थे। यह समझ लो कि तुमने चार प्राणियो कि जान बचा ली । मैं तुम्हारे पास बहुत डरते-डरते आया था। लोगों ने कहा था-उसके पास नाहक जाते हो, वह बड़ा बेमुरौवत आदमी है, उसकी जाति से किसीका उपकार नहीं हो सकता। आदमी वह है, जो दूसरो का हित करे । वह क्या आदमी है, जो किसी कि कुछ सुने हो नहीं ! लेकिन भाईजान, मैंने किसीकी बात न मानी। मेरे दिल में मेरा राम बैठा कह रहा था--तुम चाहे कितना ही रूखे और बेलाग हो । लेकिन मुझ पर अवश्य दया करोगे ।