पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९८
मानसरोवर

'मैंने नहीं छुआ।'

'त्ने नहीं छुआ, तो यह रोते क्यो थे ?'

'गिर पड़े इससे रोने लगे।

चोरी और सीनाजोरी । देवीजी दांत पीसकर रह गई। मारती तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उनकी देह में पैवस्त हो जाता , इसलिए जहाँ तो गालियां दे सकी, दी और हुक्म दिया कि अभी-अभी यहाँ से निकल जा । फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आई, तो खून ही पी जाउंगी। मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है आदि।

मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ डर था । चुपके से अपने सकोरे उठाये, टाट का टुकड़ा बगल मे दबाया, धोती कन्धे पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा। अब वह यहाँ कभी न आयेगा। यही तो होगा, भूखों मर जायगा। क्या हरज है। इस तरह जीने से फायदा ही क्या। गाँव मे उसके लिए और कहाँ ठिकाना था। भगी को कौन पनाह देता ! उसी अपने खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों की स्मृतियां उसके आंसू पोछ सकती थीं, और खुब फूट-फूटकर रोया ।

उसी क्षण टामी भी उसे ढूंढता हुआ पहुंचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गये।

( ६ )

लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता जाता था, मंगल को ग्लानि भी गायब होती जाती थी। बचपन की बेचैन करनेवाली भूख देह का रक्क पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी। आँखें बार-बार सकोरों की और उठ जातीं। वहाँ अब- तक सुरेश को जूठी मिठाइयाँ मिल गई होती । यहाँ क्या धूल फांके !

उसने टामी से सलाह की-खाओगे क्या टामी, मैं तो भूखा ही लेट रहूँगा ?

हामी ने कूँ-कूँ करके शायद कहा- इस तरह का अपमान तो ज़िन्दगी-भर सहना है । यो हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा। मुझे देखो न, अभी किसी ने डण्डा मारा, चिल्ला उठा , फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुंचा। हम-तुम दोनों इसलिए बने हैं भाई!