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मानसरोवर

दूसरे ने जवाब दिया--अच्छा हुआ, निकाल दिया गया। सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था।

मंगल और अंधेरे में खिसक गया। आशा गहरे जल मे डूब गई।

महेशनाथ थाली से उठ गये । नौकर हाथ धुला रहा है । अब हुक्का पीयेंगे और सोयेंगे । सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहानी सुनता-मुनता सो जायेगा । गरीब मंगल की किसे चिन्ता है । इतनी देर हो गई, किसी ने भूल से भी न पुकारा ।

कुछ देर तक वह निराशा-सा वहाँ खड़ा रहा, फिर एक लबी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल मे थाली का जूठन ले जाता नजर आया।

मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके ।

कहार ने कहा-अरे, तू यहाँ था । हमने समझा कहीं चला गया । ले खा ले, मैं फेंकने ले जा रहा था।

मंगल ने दीनता से कहा-~-मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।

'तो बोला क्यो नहीं ?

'मारे डर के।'

'अच्छा,ले खा ले।'

उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखो से देखा, जिसमे दीन कृतज्ञता भरी हुई थी।

टामी भी अन्दर से निकल आया था। दोनो वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे।

मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा-देखा, पेट की आग ऐसी होती है । यह लात की मारी हुई रोटियां भी न मिलतीं, तो क्या करते ?

टामी ने दुम हिला दी।

'सुरेश को अम्माँ ने पाला था।'

टामी ने फिर दुम हिलाई।

'लोग कहते हैं, दूध का दार्मा कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'

टामी ने फिर दुम हिलाई।

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