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मानसरोवर


है कि हींगन और मैकू को पुकारूं। इससे मुझे अपनी स्वेच्छा और आत्म-विश्वास का वोध होता है। नौकर भी मेरे स्वभाव से परिचित हो गये हैं और बिना जरुरत मेरे पास बहुत कम आते हैं , इसलिए एक दिन जब प्रात: काल गंगू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, तो मुझे बहुत बुरा लगा। यह लोग जब आते हैं, तो पेशगी हिसाब मे कुछ मांगने के लिए या किसी दूसरे नोकर की शिकायत करने के लिए, और मुझे यह दोनो ही बातें अत्यन्त अप्रिय हैं। मैं पहली तारीख को हरएक का वेतन चुका देता हूँ और बीच मे जब कोई कुछ मांगता है, तो क्रोध आ जाता है ! कौन दो-दो, चार-चार रुपये का हिसाव रखता फिरे। फिर जब किसीको महीने-भर को पूरी मजूरी मिल गई, तो उसे क्या हक है कि उसे पन्द्रह दिन मे खर्च कर दे और ऋण या पेशगी की शरण ले, और शिकायतों से तो मुझे घृणा है। मैं शिकायतो को दुर्वलता का प्रमाण समझता हूँ, या ठकुर-सुहाती की क्षुद्र चेष्टा ।

'मैंने माथा सिकोड़कर कहा-क्या बात है, मैंने तो तुम्हे बुलाया नहीं ?

गंगू के तीखे अभिमानो मुख पर आज कुछ ऐसी नम्रता, कुछ ऐसी याचना, कुछ ऐसा सकोच था कि मैं चकित हो गया । ऐसा जान पड़ा, वह कुछ जवाब देना चाहता है । मगर शब्द नहीं मिल रहे हैं।'

मैंने ज़रा और कड़ा होकर कहा-~आखिर क्या बात है ? कहते क्यों नहीं । तुम जानते हो, यह मेरे टहलने का समय है। मुझे देर हो रही है।

गंगू ने निराशा-भरे स्वर मे कहा-तो आप हवा खाने जायं, मैं फिर आ जाऊँगा।

यह अवस्था और भी चिन्ताजनक थी । इस जल्दी में तो वह एक क्षण मे अपना वृत्तान्त कह सुनायेगा। वह जानता है कि मुझे ज्यादा अवकाश नहीं है । दूसरे अव- सर पर तो दुष्ट घूटो रोयेगा । मेरे कुछ लिखने-पढने को तो वह शायद कुछ काम समझता हो, लेकिन विचार को, जो मेरे लिए सबसे कठिन साधना है, वह मेरे विश्राम का समय समझता है । वह उसी वक्त आँकर मेरे सिर पर सवार हो जायगा ।

मैंने निर्दयता के साथ कहा-वया कुछ पेशगी मांगने आये हो ? मैं पेशगी नहीं देता।

'जी नहीं सरकार, मैने तो कभी पेशगो नहीं मांगी।'

'तो क्या किसी की शिकायत करना चाहते हो ? मुझे शिकायतों से घृणा है।'

'जी नहीं सरकार, मैंने तो कभी किसी की शिकायत नही की ?'