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बालक

मेने कुटिल परिहास आरम्भ किया -तो तुम्हारे घर से कुछ नहीं ले गई ?

'कुछ भी नहीं बाबूजी, धेले की चीज़ भी नहीं ।'

'और तुमसे प्रेम भी बहुत करती थी ।'

'अब आपसे क्या कहूँ बापूजी, वह प्रेम तो मरते दम तक याद रहेगा।'

‘फिर भी तुम्हें छोडकर चली गई ।'

'यही तो आश्चर्य है, बाबूजी ।'

'त्रया-चरित्र का नाम कभी सुना है ?'

'अरे बाबूजी, ऐसा न कहिए । मेरी गर्दन पर कोई छुरी रख दे, तो भी मैं उसमा यश ही गाऊँगा।'

'तो फिर हूंढ निकालो।

'हां, मालिक । जब तक उसे हूँढ न लाऊँगा, मुझे चैन न आवेगा। मुझे इतना मालूम हो जाय कि वह कहाँ है, फिर तो मे उसे ले ही आऊँगा , और वाबूजी, मेरा दिल कहता है कि वह आयेगी जरूर। देख लीजिएगा । वह मुझसे रूटकर नहीं- गई , लेकिन दिल नहीं मानता । जाता है, महीने-दो-महोने जंगल-पहाड़ को धूल छानूँगां । जीता रहा, तो फिर आपके दर्शन करूंगा।'

यह कहकर वह उन्माद की दशा मे एक तरफ चल दिया।

( ३ )

इसके बाद मुझे एक जरूरत से नैनीताल जाना पड़ा। सर करने के लिए नहीं । एक महीने के बाद लौटा, और अभी कपड़े भी न उतारने पाया था कि देखता हूँ, गंगू एक नर-जात शिशु को गोद में लिये खडा है। शायद कृष्ण को पाकर नन्द भी इतने पुलकित न हुए होगे । मालूम होता था, उसके रोम-रोम से आनन्द फूटा पड़ता है। चेहरे और आंखों से कृतज्ञता और श्रद्धा के राग से निकल रहे थे। कुछ वही भाव था, जो विसो क्षुधा-पीडि़त भिक्षुक के चेहरे पर भर-पेट भोजन करने के बाद नज़र आता है।

मैने पूछा---क्हो महाराज, गोमतो देवी का कुछ पता लगा, तुम तो बाहर गये थे।

गंगू ने आपे मे न समाते हुए जवाब दिया---हाँ बाबूजी, आपके आशीर्वाद से दृढ़ लाया । लखनऊ के जनाने अस्पताल में मिली । यहाँ एक सहेली से कह नई थी