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मानसरोवर


आये । और आज यह कोई बात नयी नहीं है। इधर कई महीनों से यह इसको रोज़ को आदत है। मैंने आज तक आपसे कभी अपना दर्द नहीं कहा , मगर उस समय भी जब में हँस-हँसकर आपसे बातें करती थी, मेरी आत्मा रोती रहती थी।

कावसजी ने निष्कपट भाव से कहा - तुमने पूछा नहीं, कहाँ रह जाते हो ?

'पूछने से क्या लोग अपने दिल की बातें बता दिया करते हैं ?

'तुमसे तो उन्हें कोई भेद न रखना चाहिए।'

'घर में जी न लगे, तो आदमी क्या करे ।'

'मुझे यह सुनकर आश्चर्य हो रहा है । तुम-जैसी देवी जिस घर मे हो, वह स्वर्ग है। शापूरजी को तो अपना भाग्य सराहना चाहिए।'

'आपका यह भाव तभी तक है, जब तक आपके पास धन नहीं है। आज तुम्हे कहीं से दो-चार लाख मिल जाय, तो तुम यो न रहोगे, और तुम्हारे यह भाव बदल जायेंगे। यही धन का सबसे बड़ा अभिशाप है। ऊपरी सुख-शान्ति के नीचे कितनी आग है, यह तो उसी वक्त खुलता है, जब ज्वालामुखी फट पड़ता है। वह समझते हैं, धन से घर भरकर उन्होंने मेरे लिए वह सब कुछ कर दिया, जो उनका कर्तव्य था, और अब मुझे असन्तुष्ट होने का कोई कारण नहीं। वह नहीं जानते कि ऐश के ये सारे सामान उन मिश्री तहखानो मे गड़े हुए पदाथों की तरह हैं, जो मृतात्मा के भोग के लिए रखे जाते थे।'

कावसजी एक नयी बात सुन रहे थे। उन्हें अब तक जीवन का जो अनुभव हुआ था, वह यह था कि स्त्री अंत: करण से विलासिनी होती है । उस पर लाख प्राण वारो, उसके लिए मर ही क्यों न मिटो , लेकिन व्यर्थ । वह केवल खरहरा नहीं चाहती, उससे कहीं ज्यादा दाना और घास गहती है , लेकिन एक यह देवी है, जो विलास की चीजों को तुच्छ समझती है और केवल मोठे स्नेह और रसमय सहवास से ही प्रसन्न रहना चाहती है । उनके मन में गुदगुदी-सी उठी।

मिसेज़ शापूर ने फिर कहा- उनका यह व्यापार मेरी बर्दाश्त के बाहर हो गया है, मि० कावसजी ; मेरे मन मे विद्रोह को ज्वाला उठ रही है, और मैं धर्म और शास्त्र और मर्यादा इन सभी का आश्रय लेकर भी त्राण नहीं पाती। मन को समझाती हूँ-वया संसार में लाखो विधवाएँ नही पड़ी हुई हैं, लेकिन किसी तरह चित्त नहीं शान्त होता। मुझे विश्वास आता जाता है कि वह मुझे मैदान में आने के लिए