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जीवन का शाप

'मैं इसे नहीं मानता । पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं है, स्त्री पुरुष को मुहताज है।'

'आपका आशय यही तो है कि स्त्री अपने भरण-पोषण के लिए पुरुष पर अव- लभित है।

'अगर आप इन शब्दो में कहना चाहते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं , मगर अधिकार की बागडोर जैसे राजनीति में, वैसे ही समाज-नीति में धन-बल के हाथ रही है और रहेगी।'

'अगर दैवयोग से धनोपार्जन का काम स्त्री कर रही हो। और पुरुष कोई काम न मिलने के कारण घर बैठा हो, तो स्त्री को अधिकार है कि अपना मनोरंजन जिस तरह चाहे करे?'

'मैं स्त्री को अधिकार नहीं दे सकता ।'

'यह आपका अन्याय है।'


'बिलकुल नहीं । स्त्री पर प्रकृति ने ऐसे बन्धन लगा दिये हैं कि वह कितना भी चाहे, पुरुष की भांति स्वच्छन्द नहीं रह सकती और न पशुबल में पुरुष का मुकाबला कर सकती है। हां, गृहिणो का पद त्याग कर, या अप्राकृतिक जीवन का आश्रय लेकर वह सब कुछ कर सकती है।'

'आप लोग उसे मजबूर कर रहे हैं कि अप्राकृतिक जीवन का आश्रय ले।'

'मैं ऐसे समय की कल्पना ही नहीं कर सकता, जब पुरुषों का आधिपत्य स्वीकार करनेवाली औरतों का काल पड़ जाय । कानून और सभ्यता मैं नहीं जानता। पुरुषों ने स्त्रियों पर हमेशा राज किया है और करेंगे।'

सहसा कावसजो ने पहलू वदला। इतनी थोड़ी-सी देर में ही वह अच्छे खासे कूटनीति-चतुर हो गये थे। शापूरजी को प्रशंसा-सूचक आँखो से देखकर बोले-तो हम और आप दोनों एक विचार के हैं। मैं आपकी परीक्षा ले रहा था। मै भी स्री को गृहिणी, माता और स्वामिनी, सब कुछ मानने को तैयार हूँ, पर उसे स्वच्छन्द नहीं देख सकता । अगर कोई स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती है, तो उसके लिए मेरे घर में स्थान नहीं है। अभी मिसेज शापूर की बातें सुनकर मैं दंग रह गया। मुझे इसको कल्पना भी न थी कि कोई नारी मन मे इतने विद्रोहात्मक भावों को स्थान दे सकती है।

मि० शापूरजी को गर्दन की नसे तन गई । नथने फूल गये। कुरसी से उठकर