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मानसरोवर


बोले-अच्छा, तो अब शीरी ने यह ढंग निकाला । मैं अभी उससे पूछता हूँ- आपके सामने पूछता हूँ-अभी फैसला कर डालूंगा। मुझे उसकी परवाह नहीं है। किसीकी परवाह नहीं है। बेवफा औरत । जिसके हृदय में जरा भी समवेदना नहीं, जो मेरे जीवन मे जरा-सा आनन्द भी नहीं सह सकती। चाहती है, मै उसके अञ्चल में बँधा-बॅधा घूमूँ । शापूर से यह आशा रखती है ? अभागिनी भूल जाती है कि आज मै आंखो का इशारा कर दूं, तो एक सौ एक शीरियां मेरी उपासना करने लगे, जी हाँ, मेरे इशारो पर नाचे। मैने इसके लिए जो कुछ किया, बहुत कम पुरुष किसी स्त्री के लिए करते हैं। मेने, मैने

उन्हे खयाल आ गया कि वह ज़रूरत से ज्यादा बहके जा रहे है। शीरी की प्रेममय सेवाएँ याद आई। रुककर बोले-लेकिन मेरा खयाल है कि वह अब भी समझ से काम ले सकती है। मैं उसका दिल नहीं दुखाना चाहता। मै यह भी जानता हूँ कि वह ज्यादा-से-ज्यादा जो कर सकती है, वह शिकायत है। इसके आगे बढ़ने की हिमाकत वह नहीं कर सकती। औरतो को मना लेना बहुत मुश्किल नहीं है, कम-से-कम मुझे ती यही तजुरबा है।

कावसजी ने खण्डन किया-मेरा तजुरबा तो कुछ और है।

'हो सकता है , मगर आपके पास खाली बातें हैं, मेरे पास लक्ष्मी का आशी- वाद है।

'जब मन में विद्रोह के भाव जम गये, तो लक्ष्मी के टाले भी नहीं टल सकते।'

शापूरजी ने विचार पूर्ण भाव से कहा- शायद आपका विचार ठीक है।

( ४ )

कई दिन के बाद कावसजी की शीरी से पार्क में मुलाकात हुई। वह इसी अव- सर की खोज मे थे। उनका स्वर्ग तैयार हो चुका था। केवल उसमे शीरी को प्रति- ष्टित करने की क्सर थी। उस शुभ-दिन की कल्पना मे वह पागल-से हो रहे थे। गुलशन को उन्होंने उसके मैके भेज दिया था-भेज क्या दिया था, वह रूठकर चली गई थी। जब शीरी उनकी दरिद्रता का स्वागत कर रही है, तो गुलशन की खुशामद क्यो की जाय । लपककर शीरी से हाथ मिलाया और बोले- -आप खूब मिली। में आज आनेवाला था। .