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मानसरोवर


कावसजी को अपने दिल में कम्पन का अनुभव हुआ। बोले-लेकिन अभी तो वहां कोई तैयारी नहीं है।

'मेरे लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं। तुम सब कुछ हो । एक टैक्सी ले लो। मैं इसी वक्त चलूँगी।'

कावसजी टैक्सी की खोज में पार्क से निकले । वह एकान्त मे विचार करने के लिए थोड़ा-सा समय चाहते थे। इस वहाने से उन्हें समय मिल गया । उन पर अब जवानी का वह नशा न था, जो विवेक की आँखो पर छाकर बहुधा हमें गड्ढे मे गिरा देता है। अगर कुछ नशा था, तो अबतक हिरन हो चुका था। वह किस फन्दे में गला डाल रहे हैं, वह खूब समझते थे । शापूरजी उन्हें मिट्टी में मिला देने के लिए पूरा जोर लगायेंगे, यह भी उन्हे मालूम था। गुलशन उन्हे सारी दुनिया में बदनाम कर देगी, यह भी वह जानते थे। यह सब विपत्तियाँ झेलने को वह तैयार थे। शापूर को जवान बन्द करने के लिए उनके पास काफी दलीलें थीं। गुलशन को भी स्त्री समाज में अपमानित करने का उनके पास काफी मसाला था। डर था, तो यह कि शीरी का यह प्रेम टिक सकेगा, या नहीं। अभी तक शोरी ने केवल उनके सौजन्य का परिचय पाया है, केवल उनकी न्याय और सत्य और उदारता से भरी बातें सुनी हैं । इस क्षेत्र में शापूरजी से उन्होंने बाजी मारी है , लेकिन उनके सौजन्य और उनकी प्रतिमा का जादू उनके बेसरोसामान घर मे कुछ दिन रहेगा, इसमे उन्हें सन्देह था। हलवे की जगह चुपड़ी रोटियां भी मिलें, तो आदमी सब कर सकता है। रूखी भी मिल जाये, तो वह सन्तोष कर लेगा, लेकिन सूखी घास सामने देसकर तो ऋषि-मुनि भी जामे से बाहर हो जायेंगे । शीरी उनसे प्रेम करती है । लेकिन प्रेम के त्याग की भी तो सीमा है ! दो-चार दिन भावुकता के उन्माद मे वह सब कर ले, लेकिन भावुकता कोई टिकाऊ चीज तो नहीं है। वास्तविकता के आधात के सामने यह भावुकता कै दिन टिकेगो ! उस परिस्थिति की कल्पना करके कावसजी कांप उठे। अब तक वह रनिवास में रही है। अब उसे एक खपरैल का काटेज मिलेगा, जिसके फर्श पर कालीन की जगह टाट भी नहीं , कहाँ वरदीपोश नौकरी की पलटन, कहाँ एक बुढ़िया मामा को सदिग्ध सेवाएँ जो बात-बात पर भुनभुनाती है, धमकाती है, कोसती है। उनका आधा वेतन तो संगीत सिखानेवाला मास्टर ही खा जायगा और शापूरजी ने कहीं ज्यादा कमीनापन से काम लिया, तो उनको बदमाशों से पिटवा भी