'कितना बेहूदा स्वप्न है , और तुम्हे इस पर विश्वास भी आ गया । मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि स्वप्न केवल चिन्तित मन की क्रीड़ा है।'
'तुम मुझसे छिपा रहे हो । कोई-न-कोई बात हुई है ज़रूर । तुम्हारा चेहरा बोल रहा है। अच्छा, तुम इस वक्त यहाँ क्यों खड़े हो ? यह तो तुम्हारे पढ़ने का समय है।'
'यों ही, जरा घूमने चला आया था।'
'झूठ बोलते हो। खा जाओ मेरे सिर की कमम ।'
'अब तुम्हें एतबार ही न आये तो क्या करूँ ?'
'क़सम क्यों नहीं खाते ?'
'कसम को मैं झूठ का अनुमोदक समझता हूँ।'
गुलशन ने फिर उनके मुख पर तीन दृष्टि डाली । फिर एक क्षण के बाद बोली--अच्छी बात है। चलो घर चलें।
कावसजी ने मुसकिराकर कहा-~-तुम फिर मुझसे लड़ाई करोगी?
'सरकार से लड़कर भी तुम सरकार की अमलदारी में रहते हो कि नहीं ? मैं भी तुमसे लड़ूगी , मगर तुम्हारे साथ रहूँगी।'
'हम इसे कब मानते हैं कि यह सरकार की अमलदारी है '
'यह तो तुम मुंह से कहते हो । तुम्हारा रोआं रोआं इसे स्वीकार करता है। नहीं, तुम इस वक्त जेल में होते।'
'अच्छा चलो, मैं थोड़ी देर में आता है।'
'मैं अकेली नहीं जाने की । आखिर सुनूँ, तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?'
कावसजी ने बहुत कोशिश की कि गुलशन यहाँ से किसी तरह चली जाय ; लेकिन वह जितना ही इस पर जोर देते थे, उतना ही गुलशन का आग्रह भी बढता जाता था। आखिर मजबूर होकर कावसजी को शीरी और शापूर के झगड़े का वृत्तान्त कहना ही पड़ा , यदापि इस नाटक में उनका अपना जो भाग था, उसे उन्होंने बड़ी होशियारी से छिपा देने की चेष्टा की।
गुलशन ने विचार करके कहा-तो तुम्हें भी यह सनक सवार हुई ?
कावसजी ने तुरन्त प्रतिवाद किया-कैसी सनक ! मैंने क्या किया ? अव यह तो इसानियत नहीं है कि एक मित्र की स्त्री मेरी सहायता मांगे और मैं बगले झांकने लगूं ।