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मानसरोवर

सेठजी के जीवन का मुख्य काम धन कमाना था, और उसके साधनों की रक्षा करना उनका मुख्य कर्तव्य । उनके सारे व्यवहार इसी सिद्धान्त के अधीन थे। मित्रों से इसलिए मिलते थे कि उनसे धनोपार्जन में मदद मिलेगी। मनोरंजन भी करते थे, तो व्यापार की दृष्टि से , दान बहुत देते थे, पर उसमें भी यही लक्ष्य सामने रहता था। संध्या और वन्दना उनके लिए पुरानी लकीर थी, जिसे पीटते रहने में स्वार्थ सिद्ध होता था मानो कोई बेगार हो। सब कामों से छुट्टी मिली, तो जाकर ठाकुरद्वारे में खड़े हो गये, चरणामृत लिया और चले आये।

एक घंटे के बाद पुजारीजी फिर सिर पर सवार हो गये। खूबचन्द उनका मुंह देखते ही झुंझला उठे। जिस पूजा में तत्काल फायदा होता था, उसमें कोई बार बार विघ्न डाले तो क्यों न बुरा लगे। बोले-~~-कह दिया, अभी मुझे फुरसत नहीं है। खोपड़ी पर सवार हो गये। मै पूजा का गुलाम नहीं हूँ। जब घर में पैसे होते हैं, तभी ठाकुरजी की पूजा भी होती है। घर में पैसे न होंगे, तो ठाकुरजी भी पृछने न आयेंगे।

पुजारी हताश होकर चला गया और सेठजी फिर अपने काम में लगे।

सहसा उनके मित्र केशवरामजी पधारे। सेठजो उठकर उनके गले से लिपट गये और बोले-- किधर से ? मैं तो अभी तुम्हें बुलवानेवाला था।

केशवराम ने मुसकिराकर कहा-इतनी रात गये तक डालियाँ ही लग रही हैं ? अब तो समेटो । कल का सारा दिन पड़ा है, लगा लेना। तुम कैसे इतना काम करते हो, मुझे तो यही आश्चर्य होता है । आज क्या प्रोग्राम था, याद है ?

सेठजी ने गर्दन उठाकर स्मरण करने की चेष्टा करके कहा--क्या कोई विशेष प्रोग्राम था ? मुझे तो याद नहीं आता । (एकाएक स्मृति जाग उठती है) अच्छा वह बात ! हाँ याद आ गया । अभी देर तो नहीं हुई । इस झमेले में ऐसा भूला कि ज़रा भी याद न रही।

'तो चलो फिर । मैने तो समझा था, तुम वहां पहुंच गये होगे।'

'मेरे न जाने से लैला नाराज़ तो नहीं हुई ?'

'यह तो वहाँ चलने पर मालूम होगा।'

'तुम मेरी ओर से क्षमा मांग लेना।'

'मुझे क्या गरज़ पड़ी है, जो आपकी ओर से क्षमा मांगू। वह तो त्योरिया