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डामुल का कैदी

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कहा--भाइयों, मैं तुमसे एक शब्द कहने आया हूँ। कह नहीं सकता, बचूंगा या नहीं। सम्भव है, तुमसे यह मेरा अन्तिम निवेदन हो। तुम क्या करने जा रहे हो? दरिद्र में नारायण का निवास है, क्या इसे मिथ्या करना चाहते हो? धनी को अपने धन का मद हो सकता है। तुम्हें किस बात का अभिमान है? तुम्हारे झोपड़ों मे क्रोध और अहंकार के लिए कहाँ स्थान है। मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, सब लोग यहाँ से हट जाओ, अगर तुम्हें मुझसे कुछ स्नेह हैं, अगर मैंने तुम्हारी कुछ सेवा की है, तो अपने घर जाओ और सेठजी को घर जाने दो।

चारों तरफ से आपत्तिजनक आवाजें आने लगीं, लेकिन गोपीनाथ का विरोध करने का किसी में साहस न हुआ। धीरे-धीरे लोग वहाँ से हट गये। मैदान साफ हो गया, तो गोपीनाथ ने विनम्र भाव से सेठजी से कहा--सरकार, अब आप चले जाएँ। मैं जानता हूँ, आपने मुझे धोखे से मारा मैं केवल यही कहने आपके पास जा रहा था, जो अब कह रहा हूँ। मेरा दुर्भाग्य था कि आपको भ्रम हुआ। ईश्वर की यही इच्छा थी।

सेठजी को गोपीनाथ पर कुछ श्रद्धा होने लगी है। नीचे उतरने में कुछ शक अवश्य है, पर ऊपर भी तो प्राण बचने की कोई आशा नहीं है। वह इधर-उधर सशक नेत्रों से ताकते हुए उतरते हैं। जन-समूह कुल दस गज़ के अन्तर पर खड़ा है। प्रत्येक मनुष्य की आँखों में विद्रोह और हिंसा भरी हुई हैं। कुछ लोग दबी जबान से-पर सेठजी को सुनाकर--अशिष्ट आलोचनाएँ कर रहे हैं, पर किसी मे इतना साहस नहीं है कि उनके सामने आ सके। उस मरते हुए युवक के आदेश में इतनी शक्ति है।

सेठजी मोटर पर बैठकर चले ही थे कि गोपी जमीन पर गिर पड़ा।

( ३ )

सेठजी की मोटर जितनी तेज़ी से जा रही थी, उतनी ही तेज़ी से उनकी आँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र भी दौड़ रहा था। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में आने लगीं। अपराधी भावनाएँ चित्त को आन्दोलित करने लगीं, अगर गोपी उनका शत्रु था, तो उसने क्यों उनकी जान बचाई--ऐसी दशा में, जब वह स्वयं मृत्यु के पंजे में था? इसका उनके पास कोई जवाब न था। निरपराध गोपी, जैसे हाथ बांधे उनके सामने खड़ा कह रहा था--आपने मुझ बेगुनाह को क्यों मारा?