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डामुल का कैदी


पूजा, तप और व्रत यही उसके जीवन के आधार थे। सुख में, दुख में, बीमारी में, आराम में, उपासना ही उसकी कवच थी। इस समय भी उस पर संकट आ पड़ा है। ईश्वर के सिवा कौन उसका उद्धार करेगा। वह वहीं खड़ी द्वार की और ताक रही थी और उसका धर्म-निष्ट मन ईश्वर के चरणों में गिरकर क्षमा की भिक्षा माँग रहा था।

सेठजी बोले-यह मजूर उस जन्म का कोई महान् पुरुष था। नहीं तो जिस आदमी ने उसे मारा, उसी को प्राण-रक्षा के लिए क्यों इतनी तपस्या करता।

प्रमीला श्रद्धा-भाव से बोली-भगवान् की प्रेरणा, और क्या। भगवान् की दया होती है, तभी हमारे मन में सुविचार भी आते हैं।

सेठजी ने जिज्ञासा की-तो फिर बुरे विचारे भी ईश्वर की प्रेरणा ही से आते होंगे?

प्रमीला तत्परता के साथ बोली-ईश्वर आनन्द-स्वरूप हैं। दीपक से कभी अन्धकार नहीं निकल सकता।

सेठजी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाहर शोर सुनकर चौक पड़े। दोनों ने सड़क की तरफ की खिड़की खोलकर देखा, तो हज़ारों आदमी काली झण्डियाँ लिये दाहिनी तरफ से आते दिखाई दिये। झण्डियों के बाद एक अर्थी थी, जिस पर फूलों ही वर्षा हो रही थी। अर्थी के पीछे जहाँ तक निगाह जाती थी, सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। यह गोपीनाथ के जनाजे का जलूस था। सेठजी ती मोटर पर बैठकर मिल से घर की ओर चले, उधर मजूरों ने दूसरे मिलों में इस हत्याकाण्ड की सूचना भेज दी। दम-के-दम में सारे शहर में यह खबर बिजली की तरह दौड़ गई और कई मिलों में हड़ताल हो गई। नगर में सनसनी फैल गई। किसी भीषण उपद्रव के भय से लोगों ने दुकानें बन्द कर दी। यह जलूस नगर के मुख्य स्थानों का चक्कर लगाता हुआ सेठ खूबचन्द के द्वार पर आया है और गोपीनाथ के खून का बदला लेने पर तुला हुआ है। उधर पुलिस अधिकारियों ने सेठजी की रक्षा करने का निश्चय कर लिया है, चाहे खून की नदी ही क्यों न बह जाय। जलूस के पीछे सशस्त्र पुलिस के दो सौ जवान डबल मार्च से उपद्रवकारियों का दमन करने चले आ रहे हैं।

सेठजी अभी अपने कर्तव्य का निश्चय न कर पाये थे कि विद्रोहियों ने कोठी के दफ्तर में घुसकर लेन-देन के बही-खातों को जलाना और तिजोरियों को तोड़ना शुरू कर दिया। मुनीम और अन्य कर्मचारी और चौकीदार सब-के-सब अपनी-अपनी जान