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डामुल का कैदी


खेद न था। वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी, यह सारा कारोबार चौपट हो जायगा, यह सम्पत्ति धूल में मिल जायगी, कौन जाने प्रमीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कौन जियेगा, कौन जानता है, मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आवाहन कर रहे हों। और वह वेदनामय विशता, जो हमें मृत्यु के समय दवा लेती हैं, उन्हें भी दवाये हुए भी।

प्रमीला उनके साथ-ही-साथ नीचे उतर आई। वह उनके साथ उस समय तक रहना चाहती थी, जब तक जाबता उसे पृथक् न कर दे; लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गये और वह वहीं खड़ी रोती रह गई।

( ४ )

वलि पाते ही विद्रोह का पिशाच शान्त हो गया। सेठजी एक सप्ताह हवालात में रहे। फिर उन पर अभियोग चलने लगा। बम्बई के सबसे नामी वैरिस्टर गोपी की तरफ से पैरवी कर रहे थे। मजूर ने चन्दे से अपार वन एकत्र किया था और यहाँ तक तुले हुए थे कि अगर अदालत से सेठजी बरी भी हो जाये, तो उनकी हत्या कर दी जाय। नित्य इजलास में कई हजार कुलो जमा रहते। अभियोग सिद्ध हो था । मुलज़िम ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। उनके वकीलों ने उसके अपराध को हल करने की दलीलें पेश कीं। फैसला यह हुआ कि चौदह साल का काला पानी हो गया।

सेठजी के जाते हीं मानो लक्ष्मी रूठ गई, जैसे उस विशालकाय वैभव को आत्मा निकल गई हो। साल भर के अन्दर उस वैमन का कंकाल-मात्र रह गया। मिल तो पहले ही बन्द हो चुकी थी। लेना-देना चुकाने पर कुछ न बचा। यहाँ तक कि रहने का घर भी हाथ से निकल गया।

प्रमीला के पास लाखों के आभूषण थे। वह चाहती, तो उन्हें सुरक्षित रख सकती थी; पर त्याग की धुन में उन्हें भी निकाल फेंका। सातवें महीने में जब उनके पुत्र का जन्म हुआ, तो वह छोटे-से किराये के घर में जी। पुत्र-रत्न पाकर अपनी सारी विपत्ति भूल गई। कुछ दुःख था तो यही कि पतिदेव होते, तो इस समय कितने आंनदित होते।

प्रमीला ने किन कष्टों को झेलते हुए पुत्र का पालन किया, इसकी कथा लम्बी है। सब कुछ सहा; पर किसी के सामने हार नहीं फैलाया। जिस तत्परता से उसने ने चुकाये थे, उससे लोगों की उस पर भक्ति हो गई थी। कई सज्जन तो