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मानसरोवर

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उसे कुछ मासिक सहायता देने पर तैयार थे। लेकिन प्रमीला ने किसी का एहसान न लिया। भले घरों की महिलाओं से उसका परिचय था ही। वह घरों में स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करके गुजारा-भर को कमा लेती थी। जब तक बच्चा दूध पीता था, उसे अपने काम में बड़ी कठिनाई पडी; लेकिन दूध छुड़ा देने के बाद वह बच्चे को दाई को सौंपकर आप काम करने चली जाती। दिन-भर के कठिन परिश्रम के बाद जब वह सन्ध्या-समय घर आकर बालक को गोद में उठा लेती, तो उसका मन हर्ष से उन्मत्त होकर पति के पास उड़ जाता, जो न-जाने किस दशा में काले कौस पड़ा था। उसे अपनी सम्पत्ति के लुट जाने का लेशमात्र भी दुख नहीं हैं। उसे केवल इतनी ही लालसा है कि स्वामी कुशल से लौट आयें और बालक को देखकर अपनी आँखें शीतल करें। फिर तो वह इस दरिद्रता में भी सुखी और संतुष्ट रहेगी। वह नित्य ईश्वर के चरणों में सिर झुकाकर स्वामी के लिए प्रार्थना करती है। उसे विश्वास है, ईश्वर जो कुछ करेंगे, उससे उसका कल्याण ही होगा। ईश्वर-वन्दना में वह अलौकिक धैर्य और साहस और जीवन का आभास पाती है। प्रार्थना ही अब उसकी आशाओं का आधार है।

( ५ )

पन्द्रह साल की विपत्ति के दिन आशा की छहि में कट गये।

सन्ध्या का समय है। किशोर कृष्णचन्द्र अपनी माता के पास मन मारे बैठा हुआ है। वह माँ-बाप दोनों में से एक को भी नहीं पड़ा।

प्रमीला ने पूछा-क्यों बेटा, तुम्हारी परीक्षा तो समाप्त हो गई है?

बालक ने गिरे हुए मन से जवाब दिया-हाँ, अम्माँ, हो गई, लेकिन मेरे परचे अच्छे नहीं हुए। मेरा मन पढ़ने में नहीं लगता।

यह कहते-कहते उसकी आँखें डबडबा आई। प्रमीला ने स्नेह भरे स्वर में कहा-यह तो अच्छी बात नहीं है बेटा, तुरहें पढ़ने में मन लगाना चाहिए।

बालक सजल नेत्रों से माता को देखता हुआ बोला-मुझे बार-बार पिताजी की याद आती रहती है। वह तो अब बहुत बूढ़े हो गये होंगे। मैं सोचा करता हूँ कि वह आयेंगे, तो तन मन से उनकी सेवा करूँगा। इतना बड़ा उत्सर्ग किसने किया होगा अम्माँ! उस पर लोग उन्हें निर्दयी कहते हैं। मैंने गोपीनाथ के बाल-बच्चों का पता लगा लिया अम्माँ! उनकी घरवाली है, माता हैं और एक लड़की है, जो मुझसे दो